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कर दिया कि वे उक्त रहस्य कभी उनकी मां के समक्ष प्रकट न करें ।
समय बीता। पर रहस्य एक दिन प्रकट हो गया। पुत्रों ने किसी प्रसंग पर अपनी मां से पूछ लिया कि उसने उनके पिता को कुएं मे क्यों धकेला था । गोश्री ने पुत्रों से पूछा कि उन्हें यह बात किसने कही है। पुत्रों ने अपने पिता का नाम ले दिया। इससे गो श्री को कठोर आघात लगा । वह उसी क्षण निष्प्राण हो गई ।
विजय ने पत्नी की मृत्यु का अपराधी स्वयं को माना । उसने विचार किया, यदि वह पुत्रों पर उक्त रहस्य प्रकट न करता तो गोश्री की मृत्यु नहीं होती। उसका हृदय आत्मग्लानि से पूर्ण बन गया। वह जिनोपासक था। सो आत्मग्लानि वैराग्यभाव मे बदल गई । उसने मुनि विमलसूरि के चरणों में दीक्षा धारण कर ली । महाव्रतों का पालन करके वह आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में देव बना । - धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 10
विजय कुमार
विशाला नगरी के महाराज जयतुंग का इकलौता पुत्र, एक साहसी और परोपकारवृत्ति - सम्पन्न राजकुमार । पूर्वजन्म में वह वीरपुर नगर का धन नामक समृद्ध श्रेष्ठी था। जिनदास नामक एक श्रमणोपासक श्रेष्ठी से उसकी मैत्री थी। जिनदास धन श्रेष्ठी को जिनधर्म के लिए निरन्तर प्रेरणाएं दिया करता था, पर धन की रुचि तापस धर्म की ओर थी । वृद्धावस्था में धन ने तापसी प्रव्रज्या धारण की। आयुष्य पूर्ण कर वह व्यंतर देव बना । जिनदास ने आर्हती प्रव्रज्या धारण की और वह आयुष्य पूर्ण कर वैमानिक देव बना । वैमानिक देव जिनदास ने अवधिज्ञान से अपने मित्र धन की स्थिति को जाना और उससे मिलने के लिए उसके पास गया। व्यंतर देव धन वैमानिक देव जिनदास की ऋद्धि और दिव्य कांति देखकर हैरान हुआ। जिनदास ने उसे बताया कि वह सब जिनधर्म का प्रभाव है। उसने स्पष्ट किया, जिनधर्म का यह तो क्षुद्र-सा प्रभाव है, उसकी सम्यक् आराधना का अन्तिम फल तो मोक्ष है। जिनधर्म की महिमा को देखकर व्यंतर देव धन चमत्कृत हो गया। उसने कहा, मित्र मेरा आयुष्य तुम्हारे से छोटा है। यहां से च्यवन होने पर मैं जहां जन्म लूंगा, तुम मुझे प्रतिबोध देने पधारना । जिनदेव ने धन को वैसा करने का वचन दे दिया ।
धन का जीव व्यंतर-योनि से च्यव कर विशाला का राजकुमार विजय बना । जिनदास के जीव देव ने राजकुमार विजय को प्रतिबोधित किया। देव से प्रतिबोध पाकर विजय को अवधिज्ञान हो गया। उसने अपने दोनों पूर्वभवों को देखा। जिन प्रव्रज्या धारण कर वह साधना में लीन बन गया । आयुष्य पूर्ण कर जिनदास के विमान में ही वह देव बना । दोनों देव च्यवन को प्राप्त कर महाविदेह से सिद्ध होंगे।
- धर्मरत्न प्रकरण टीका. गा. 16
विजयघोष
वाराणसी का रहने वाला एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण । वह ब्राह्मण धर्म का पुरजोर पक्षधर था और यज्ञकरता रहता था । उसी के सहोदर जयघोष जो काफी समय पूर्व श्रमण धर्म में दीक्षित हो गए थे ने उसे ब्राह्मणत्व और यज्ञादि के आध्यात्मिक अर्थ बताए तो वह प्रतिबुद्ध बन गया और श्रमणधर्म में दीक्षित होकर विशुद्ध संयम की आराधना कर मोक्ष में गया ।
- उत्तराध्ययन, अध्ययन 25
(क) विजयचन्द्र
एक राजकुमार जो पिता द्वारा युवराज पद न दिए जाने से क्षुब्ध होकर मुनि बन गया । ज्ञान-ध्यान और जप से उसने आचार्य श्री को प्रभावित बना लिया । आचार्य श्री ने विजयचन्द्र मुनि को आचार्य पद • जैन चरित्र कोश •••
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