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के रूप में जन्मी । उक्त विशेषता के अतिरिक्त इनका समग्र परिचय काली आर्या के समान आगम में वर्णित है । (देखिए काली आर्या -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि. श्रु., वर्ग 10, अ. 7
वसुमित्र
अयोध्या नगरी का रहने वाला एक दृढ़धर्मी श्रावक, उसके पास विशाल धनराशि थी । भरा-पूरा परिवार था। वह राजमान्य नगर सेठ था । पर ये समस्त बातें उसके धर्म की बात के समक्ष नगण्य थी। वह बारह व्रती श्रावक था और नियमतः धर्माराधना करता था । एक बार वह पौषधशाला में पौषध की आराधना के साथ रात्रि में धर्म जागरिका कर रहा था। एक देव ने जिनधर्म को पाखण्ड और ढकोसला बताते हुए वसुमित्र को उसे छोड़ने के लिए प्रेरित किया । परन्तु वसुमित्र की तो अस्थि मज्जा में जिनधर्म बसा था । भला वह देव की बात कैसे मान सकता था । देवता ने असंख्य सुखद् कल्पनाएं वसुमित्र के समक्ष साक्षात् रूप से उपस्थित कीं और कहा, जिनधर्म के परित्याग करने पर उसे वे सब वस्तुएं प्राप्त होंगी, पर वसुमित्र ने देवता की बात पर ध्यान नहीं दिया।
अनुकूल उपसर्गों की असफलता पर देवता ने प्रतिकूल उपसर्गों की एक लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत की । उसने ऐसा दिखाया कि जैसे कोई पुरुष वसुमित्र की पत्नी का शील हरण करने का प्रयास कर रहा है और पत्नी वसुमित्र को सहायता के लिए पुकार रही है। वसुमित्र ने इसे भी देवमाया ही समझा। फिर देव ने उसके पुत्रों को कष्ट में घिरे होने का दृश्य उपस्थित किया, उसके धन के हरण के दृश्य दिखाए। व्यक्ति को विचलित कर देने वाली प्रत्येक स्थिति देवता ने रची पर वह वसुमित्र के मन में तनिक भी भय, प्रलोभन अथवा अन्यान्य भाव को जन्म नहीं दे पाया । आखिर देव शक्ति पराजित हो गई। गद्गद बनकर देवता ने वसुमित्र श्रावक की दृढ़धर्मिता की भूरि-भूरि प्रशंसा की, और उसे आकाशगामिनी विद्या देकर वह अपने स्थान पर लौट गया । - बृहत्कथा कोष, भाग 9 ( आचार्य हरिषेण)
वसु राजा
शुक्तिमति नगरी का सत्यवादी राजा । वसु बाल्यकाल से सत्यवादी था। उसकी शिक्षा-दीक्षा क्षीर आचार्य आश्रम में हुई थी। उसके दो अन्य सहपाठी थे - पर्वत और नारद । पर्वत आचार्य क्षीरकदम्बक का पुत्र था। एक बार रात्रि में आचार्य क्षीरकदम्बक को निद्रा नहीं लग रही थी। उधर से दो चारण मुनि गुजर रहे थे जो परस्पर वार्तालाप कर रहे थे कि इस आश्रम में पढ़ले वाले तीन छात्रों में से एक मोक्षगामी है और दो नरकगामी हैं। मुनियों की वार्ता से आचार्य बड़ा चिन्तित हुआ कि उसके दो छात्र नरकगामी हैं। मोक्षगामी की पहचान के लिए दूसरे दिन आचार्य ने अपने तीनों छात्रों को आटे के बने हुए तीन मुर्गे दिए और आदेश दिया कि जहां कोई न देखता हो ऐसे स्थान पर जाकर अपने-अपने मुर्गे की गर्दन मरोड़ दो। वसु और पर्वत तो क्षण भर में ही अपने-अपने मुर्गों की गर्दनें मरोड़ लाए। पर नारद संध्या के समय लौटा और उसके मुर्गे की गर्दन यथावत् थी। गुरु ने नारद से पूछा कि उसने आदेश का पालन क्यों नहीं किया ? नारद ने कहा, गुरुदेव ! मैं ऐसा स्थान नहीं खोज पाया जहां कोई न देखता हो। मैं जहां भी गया मैंने पाया कि प्रकट रूप में मैं स्वयं देख रहा हूँ, और अप्रकट रूप से सभी ब्रह्मज्ञानी 'देख रहे हैं। आचार्य ने नारद को कण्ठ से लगा लिया। वे इस निर्णय पर पहुंचे कि नारद ही मोक्षगामी है । उसका पुत्र पर्वत और राजपुत्र वसु नरकगामी हैं। इससे क्षीरकदम्बक विरक्त हो गए और प्रव्रजित होकर साधना करने लगे ।
कालान्तर में वसु राजा बना, पर्वत आचार्य बनकर आश्रम चलाने लगा और नारद आत्मसाधना करने लगा । वसु राजा की सत्यवादिता की चर्चा सब ओर फैल गई। इस प्रशंसा से वसु को बड़ सुख मिलता था । ••• जैन चरित्र कोश
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