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वल्कलचीरी
एक राजकुमार जिसका जन्म जंगल में हुआ और जंगल में ही पालन-पोषण होने से वस्त्रों के रूप में वृक्ष-छाल उसे ओढ़ने-पहनने को मिली-इसी से वह वल्कलचीरी नाम से प्रसिद्ध हुआ। वस्तुतः उसके पिता महाराज सोमचन्द्र पोतनपुर नगर के राजा थे। किसी दिन रानी धारिणी जब पति के केशों में कंघी कर रही थी तो एक श्वेत केश देखकर उसने पति से कहा, महाराज! बुढ़ापे का दूत आ गया है। इस बात से ही राजा ने अपने पुत्र प्रसन्नचन्द्र को राजगद्दी पर बैठाकर वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा ले ली। रानी धारिणी ने पति का अनुगमन किया। रानी को तब गूढ गर्भ था, जिसका पता उसे बाद में चला। विजन-वन में साधनाशील रानी ने जिस पुत्र को जन्म दिया वह वल्कलचीरी कहाया। पुत्र जन्म के कुछ समय बाद ही धारिणी का देहावसान हो गया। पिता ने ही वल्कलचीरी का पालन-पोषण किया। कन्द-मूल तथा फल-फूल खाकर वल्कलचीरी युवा हुआ। वह तपस्वी पिता की सेवा करने लगा। मृगों के साथ वह खेलता, बतियाता। बहुत थोड़े से शब्द उसकी भाषा थी और थोड़े से ऋषि व मृग उसका संसार था। स्त्री-पुरुष तक का भेद उसे ज्ञात न था। मृगों की आंखों की सरलता उसके जीवन की सरलता थी।
राजा प्रसन्नचन्द्र को ज्ञात था कि उसके एक लघुभ्राता है। वह भाई से मिलने को उत्सुक रहता, पर पिता का आदेश था कि उसकी तपस्थली में किसी भी नर-नारी का प्रवेश न हो। एक बार जब प्रसन्नचन्द्र भ्रातृप्रेम के प्रवाह को नहीं रोक पाया तो उसने कुछ कुशल और चतुर गणिकाओं को प्रभूत धन देकर अपने भाई को संसार की ओर आकृष्ट करने तथा अपने साथ नगर में ले आने के लिए वन भेजा। गणिकाओं ने वन में विचरण करते वल्कलचीरी को देखा और अपने प्रति आकृष्ट कर लिया। साथ ही उसके हृदय में पोतनपुर आने का आकर्षण जगा दिया। उसी समय ऋषि की पगचाप सुनकर और श्राप के भय से भयतीत
र गणिकाएं वहां से भाग गईं। वल्कलचीरी के हृदय में आकर्षण के अंकर उग चके थे। वह जैसे-तैसे पोतनपुर पहुंच गया। नगर में एक गणिका ने उसका स्वागत किया और उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। उन दिनों राजा भ्रातृ-प्रेम में इतना खोया रहता था कि उसने नगर में वाद्य-वादिन्त्रों के बजाने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था। गणिका ने वल्कलचीरी से अपनी पुत्री के विवाहोत्सव पर वाद्य-वादिन्त्र बजवाए। राजाज्ञा के उल्लंघन पर गणिका को गिरफ्तार करके महाराज के सम्मुख लाया गया। गणिका ने वल्कलचीरी से अपनी पुत्री के विवाहोत्सव की बात बताई। भेद खुलते-खुलते राजा को अपने भाई की प्राप्ति हो गई । प्रसन्नचन्द्र ने भाई की शिक्षा का उचित प्रबन्ध किया और उसके सर्वविध कुशल हो जाने पर उसे आधा राज्य दे दिया।
बारह वर्षों तक वल्कलचीरी ने राज्य किया। एक मध्य रात्रि में वल्कलचीरी को पिता का स्मरण हुआ। पिता को स्मरण करके और उनकी संभावित अवस्था पर चिन्तन करके वल्कलचीरी रोने लगा। प्रातः होते ही उसने अग्रज प्रसन्नचन्द्र को अपना निर्णय सुना दिया कि वह अपने पिता के पास वन में जाएगा और वहीं रहकर पिता की सेवा करेगा। अन्ततः दोनों भाई पिता के पास पहुंचे। पिता के हर्ष का पारावार न रहा। वल्कलचीरी आश्रम के कोने में पड़े अपने उपकरणों को संभालने लगा। उपकरणों पर धूल धवांस का साम्राज्य था। वह बड़े ही प्रेम और विवेक से एक-एक उपकरण की प्रतिलेखना करने लगा। प्रतिलेखना में वह ऐसा तन्मय हुआ कि उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने ज्ञान में देखा कि वह पूर्वजन्म में मुनि था और ऐसे ही उपकरणों की प्रतिलेखना किया करता था। उसका चिन्तन सघन से सघनतर बनता गया। भाव शुभ से शुभतर बनते चले गए। उस भावदशा में चढ़ते-चढ़ते क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर उसने केवलज्ञान को पा लिया। ...534 -
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