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निर्णय हो गया। बालक धनगिरि को अर्पित कर दिया गया। इससे सुनन्दा के अन्तर्नयन भी खुल गए। ममत्व और घर का त्याग कर वह प्रव्रजित हो गई। वज्र को पोषण के लिए पुनः शय्यातर महिला को सौंप दिया गया।
___ आठ वर्ष की अवस्था में वी.नि. 504 में वज्र ने आर्य सिंहगिरि से दीक्षामंत्र ग्रहण किया। बालमुनि वज्र परम-आचार निष्ठ मुनि बने। कहते हैं कि कुछ अवसरों पर देवों ने भी बालमुनि वज्र की आचार-दृढ़ता की परीक्षा ली थी और बालमुनि वज्र को आचार में वज्र के समान ही सुदृढ़ पाया था।
पालने में झूलते हुए ही वज्र एकादश अंगों को कण्ठस्थ कर चुके थे। पर इस बात का ज्ञान अन्य किसी को नहीं था। एक दिन सभी मुनि उपाश्रय से बाहर गए थे। बालमुनि वज्र उपाश्रय में एकाकी थे। अन्य कोई काम न होने के कारण बाल मुनि ने मुनियों के उपकरणों को आस-पास रखा और उनके मध्य में बैठकर वाचना देने लगे। मनोनुकूल कार्य में वे इतने तल्लीन बन गए कि उन्हें समय का भी ध्यान नहीं रहा। उस समय आर्य सिंहगिरि उपाश्रय में लौटे। आगम पद्यों का मात्रा, बिन्दु सहित स्पष्ट-सुमधुर उच्चारण
और सांगोपांग विवेचन बालमुनि के मुख से सुनकर आचार्य आश्चर्य चकित रह गए। उन्होंने वज्र को कण्ठ से लगा लिया। ___मुनि मण्डल को आर्य वज्र की ज्ञान प्रतिभा का परिचय देने के लिए आचार्य धनगिरि ने एक उपाय निकाला। उन्होंने मुनि मण्डल से कहा, मुझे फलां क्षेत्रों में विचरना है, अतः कुछ मुनियों के साथ मैं विहार कर रहा हूँ, शेष मुनि मण्डल यहीं रहे। स्वाध्यायी मुनियों ने आचार्य श्री से निवेदन किया, भगवन् ! आपकी अनुपस्थिति में हमें वाचना कौन देगा? आचार्य श्री ने फरमाया, वज्र मुनि तुम्हें वाचना देंगे। शिष्यों ने गुरु वचन को प्रमाण किया।
आर्य सिंहगिरि की अनुपस्थिति में आर्य वज्र ने वाचना का क्रम शुरू किया। उनकी वाचना कला को देखकर स्थविर और सामान्य मुनि चकित बन गए। बालमुनि वज्र की वाचना विधि अत्यन्त प्रभावशाली
और मन्द से मन्द मति वालों के लिए भी ग्राह्य थी। इससे बालमुनि वज्र का यश संघ में विशेष वृद्धि को प्राप्त हुआ।
कुछ समय पश्चात् आर्य सिंहगिरि लौटे। उन्होंने मुनि मण्डल को आर्य वज्र की वाचना से सन्तुष्ट पाया। तब उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वे स्वयं बालमुनि की प्रतिभा को पहले ही परख चुके थे, मुनि मण्डल को बालमुनि वज्र की प्रतिभा का परिचय देने के लिए ही उन्होंने अन्यत्र विहार किया था।
आचार्य सिंहगिरि जानते थे कि बालमुनि वज्र का ज्ञान गुप्तरीति से ग्रहण किया गया ज्ञान है। विशेष योग्यता प्राप्त करने के लिए गुरुगम्य ज्ञान की अनिवार्यता अपेक्षित होती है। इस चिन्तन बिन्दु को समक्ष रखकर आचार्य श्री ने तपोयोग पूर्वक वज्रमुनि को आगमों का अध्ययन कराया। पूर्वो के अध्ययन के लिए आचार्य श्री ने वज्र मुनि को आचार्य भद्रगुप्त के पास भेजा। आचार्य भद्रगुप्त दश पूर्वधर थे। आर्य वज्र ने उनके सान्निध्य में रहकर दश पूर्वो का सांगोपांग अध्ययन किया।
दश पूर्वधर आर्य वज्र का संघ में वही स्थान था जो सितारों के मध्य चन्द्र का होता है। उनका विमल धवल यश दिग्दिगन्तों तक विस्तृत बना। उनके 500 शिष्य बने। वे जहां भी पधारे जिनशासन की महान प्रभावना हुई। इभ्य श्रेष्ठी वर्ग और कई सम्राट् उनके भक्त बने।
आर्य वज्र जहां अद्भुत और विशाल ज्ञान राशि के स्वामी थे वहीं अतिशय रूपवान भी थे। पाटलिपुत्र ... 528 ..
--- जैन चरित्र कोश ...