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उन्हीं दिनों आर्य सिंहगिरि तुम्बवन नगर में पधारे। भिक्षा वेला में आर्य धनगिरि भिक्षा के लिए गमन करने लगे। उस समय शुभ शकुन हुए। आर्य सिंहगिरि ने धनगिरि से कहा, वत्स ! अतीव शुभ शकुन हो रहे हैं। आज भिक्षा में तुम्हें जो भी सचित्त-अचित्त मिले, निःसंकोच ले आना। गुरु के आदेश को स्मृति में अंकित कर धनगिरि आर्य समित के साथ भिक्षा के लिए रवाना हुए। क्रम से वे सुनन्दा के घर गए। सुनन्दा रुदन करते हुए शिशु से भारी परेशान हो रही थी। उसने आर्य धनगिरि के पात्र में अपने शिशु को रखते हुए कहा, आर्य ! पुत्र का दायित्व पिता पर भी होता है। छह महीने मैंने इसे संभाला है, अब आप संभालिए! अपूर्व स्थिति को देखकर धनगिरि असमंजस में पड़ गए। तभी उन्हें गुरु का आदेश स्मरण हो आया कि आज भिक्षा में जो भी मिले, ले आना। धनगिरि ने कहा, भद्रे ! मैं तुम्हारी यह भिक्षा स्वीकार कर सकता हूँ, पर तुम्हें वचन देना होगा कि बाद में तुम इस शिशु पर अपना अधिकार नहीं जताओगी ! सुनन्दा शिशु से इतनी परेशान थी कि भावुकता वश उसने धनगिरि को वचन दे दिया कि आज कि बाद यह शिश सम्पूर्ण अधिकार के साथ आपका हुआ। बालक ने पितृ-मुनि के पात्र में आते ही रोदन बन्द कर दिया। धनगिरि पात्र में शिशु को लेकर गुरु के पास लौटे। उन्होंने झोली गुरुदेव आर्य सिंहगिरि को अर्पित की। झोली काफी भारी थी। सहज भाव से गुरु ने कहा, धनगिरि ! यह वज्रोपम क्या ले आए हो? आर्य सिंहगिरि का शब्द 'वज्र' ही शिशु का नाम प्रचलित हो गया। तेजस्वी बालक को देखकर सिंहगिरि ने कहा, यह बालक आगे चलकर महान प्रवचन प्रभावक होगा।
गुरु के आदेश से शिशु वज्र को साध्वियों के उपाश्रय में शय्यातर महिला को अर्पित किया गया। शय्यातर महिला अपने पुत्र की तरह बालक वज्र का पालन-पोषण करने लगी। मुनि संघ अन्यत्र विहार कर गया। साध्वियां स्वाध्याय करती तो पालने में झूलता हुआ वज्र उसे सुनता। कहते हैं कि पालने में झूलते हुए ही वज्र ने एकादश अंगों को कण्ठस्थ कर लिया था।
बालक वज्र तीन वर्ष का हो गया। सुनन्दा साध्वियों के दर्शनार्थ आती थी। अपने पुत्र को वह पुनः-पुनः देखती। मातृ-ममत्व शनैः-शनैः प्रबल बनता गया। अपने वचन को विस्मृत कर उसने साध्वियों से अपने पुत्र की याचना की। साध्वियों ने कहा, यह बालक आर्य सिंहगिरि की निधि है। उनकी आज्ञा के बिना इस शिशु को आपको नहीं दिया जा सकता है। ___ उन्हीं दिनों आचार्य सिंहगिरि शिष्य-मण्डल के साथ तुम्बवन नगर में पधारे। सुनंदा ने आर्य सिंहगिरि और आर्य धनगिरि से अपने पुत्र की याचना की। मुनियों ने सुनन्दा से कहा, श्राविके ! भिक्षा में प्राप्त वस्तु को लौटाने के लिए हम बाध्य नहीं हैं। फिर तुम वचन भी दे चुकी हो कि पुत्र पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होगा।
सुनन्दा ने कहा, ममत्व का आवेग मुझे वचन भंग के लिए बाध्य बना रहा है। आपको मेरा पुत्र लौटाना होगा, अन्यथा मैं राजा की शरण में जाऊंगी। और आखिर सुनन्दा राजा की शरण में पहुंच गई। विचित्र स्थिति को देखकर राजा ने मुनि संघ को आमंत्रित किया। निष्पक्ष न्याय के लिए दोनों पक्षों के समक्ष प्रस्ताव रखा गया कि बालक जिस पक्ष को चुनेगा उस पर उसी का अधिकार माना जाएगा। राजाज्ञा से एक ओर सुनन्दा हाथ में मिष्ठान्न और खिलौने लेकर बैठ गई तथा दूसरी ओर मुनि धनगिरि रजोहरणादि धार्मिक उपकरण लेकर बैठ गए। मध्य में बालक वज्र को छोड़ दिया गया। वज्र जातिस्मरण ज्ञानी बालक थे। वे जानते थे कि यही वह क्षण है जो उनकी जननी के लिए भी ममत्व-मुक्ति का द्वार बन सकता है। उन्होंने साश्रु सुनन्दा को पीठ दिखा दी और लपककर रजोहरण को ग्रहण कर लिया। ...जैन चरित्र कोश ...
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