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(क) रत्नसार
शाम्बी नगरी का एक रत्न व्यापारी । (देखिए - सहस्रमल्ल)
(ख) रत्नसार
रत्नविशाला नामक नगरी के श्रेष्ठी वसुसार का पुत्र, एक धीर, वीर और दृढ़ प्रतिज्ञयी युवक । आचार्य विनयधर से उसने परिग्रह - परिमाण व्रत ग्रहण किया था ।
वसुसार के पास एक द्रुतगामी अश्व और एक बुद्धिमान तोता था । रत्नसार ने ये दोनों उपहार पिता से प्राप्त किए और पिता की अनुमति प्राप्त कर विश्वभ्रमण के लिए चल दिया। मार्ग में एक सघन वन में एक मनोहारी रूप वाले युवा तापस ने रत्नसार का स्वागत किया। रत्नसार ने तापस का परिचय पूछा। तापस अपना परिचय बताने लगा। उसी समय तीव्र अंधड़ उठा और तापस कुमार उस अंधड़ में उड़कर अदृश्य हो गया। रत्नसार समझ गया कि किसी चामत्कारिक शक्ति ने तापस कुमार को अदृश्य किया है। साथ ही उसे यह भी भलीभांति विश्वास हो गया कि तापस कुमार पुरुष न होकर नारी है। तोते ने रत्नसार के विश्वास को यह कहकर आधार प्रदान किया कि तापस कुमार पुरुष नहीं नारी है और किसी विद्याधर के चंगुल में कैद
।
रत्नसार तापस कुमार को खोजने के लिए आगे बढ़ा। वह एक उद्यान में पहुंचा। वहां उसे एक रूपसी राजकन्या मिली। राजकन्या ने अपना नाम तिलकमंजरी बताया। साथ ही यह भी बताया कि उसकी बहन अशोकमंजरी का अपहरण किसी विद्याधर ने कर लिया है और उसकी कुलदेवी ने बताया है कि इसी उद्यान में उसे उसकी बहन मिलेगी। इधर यह वार्तालाप हो ही रहा था कि एक हंसी रत्नसार की गोद में आकर गिरी । रत्नसार ने हंसी को संभाला ही था कि पीछे से विद्याधर आ गया । रत्नसार ने धर्म बल और आत्मबल के दम पर विद्याधर को मार भगाया। हंसी देवकृपा से अपने मूलरूप में आ गई। वह अशोकमंजरी ही थी जिसे विद्याधर ने पहले तापसकुमार और बाद में हंसी बना दिया था। दोनों बहनों का मिलन हुआ। दोनों ने रत्नसार से पाणिग्रहण कर लिया । रत्नसार के एक मित्र देव ने उसी स्थान पर एक सप्तमंजिला भव्य भवन बना दिया। रत्नसार अपनी दोनों पत्नियों के साथ उस महल में रहकर आमोद-प्रमोद पूर्वक समय व्यतीत करने लगा ।
एक रात्रि में एक देव ने रत्नसार के मित्र शुक को चुरा लिया। रत्नसार ने देव का पीछा किया। पर कुछ ही दूर जाने पर देव शुक के साथ ही अदृश्य हो गया । रत्नसार चलते-चलते एक नगर-द्वार पर पहुंचा। वहां देव ने रत्नसार के परिग्रह - परिमाण व्रत की परीक्षा ली। देव ने रत्नसार को राजा बनाना चाहा, पर रत्नसार ने उसके प्रस्ताव को यह कहकर नकार दिया कि उसे परिग्रह-परिमाण का व्रत है और राजपद स्वीकार करने से उसका व्रत खण्डित हो जाएगा। रत्नसार द्वारा राजपद अस्वीकार करने पर देव ने उसे भयभीत करना चाहा, उसे जान से मार देने की धमकी दी, परन्तु रत्नसार तो अभय पुरुष था । वह मृत्यु से भय नहीं मानता था । व्रत पालन उसे प्राणों से अधिक प्रिय था। आखिर देव उसकी दृढ़-धर्मिता के समक्ष नतमस्तक हो गया । उसने रत्नसार को उसका तोता लौटा दिया।
वहां से रत्नसार तिलकमंजरी, अशोकमंजरी, शुक आदि के साथ पहले कनकपुरी पहुंचा और बाद में अपने गृहनगर रत्नविशाला नगरी में आया। पिता और पुत्र का मिलन हुआ। पिता ने पुत्रवधुओं का स्वागत किया । शुक ने रत्नसार का यात्रा वृत्तान्त सुनाकर सभी को आनन्दित किया ।
••• जैन चरित्र कोश
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