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लिया और सुमति को सिंहलद्वीप स्थित जयपुर नगर में पहुंचा दिया । यक्ष ने सुमति को रूप - परावर्तिनी विद्या दी और कहा, रत्नवती यहां की राजकुमारी है। साथ ही उसने कहा- जब भी उसे उसकी सहायता की आवश्यकता पड़े उसे स्मरण कर ले, वह तत्क्षण उपस्थित हो जाएगा।
सुमति का कार्य बहुत सरल हो गया। उसे ज्ञात था कि राजकुमारी पुरुष की ओर आंखें तक उठाकर नहीं देखती है, इसलिए उसने रूपपरावर्तिनी विद्या से एक युवा योगिनी का रूप बना लिया। कुछ ही दिनों में योगिनी रूपी सुमति ने नगर निवासियों पर अपने त्याग - वैराग्य का अद्भुत प्रभाव जमा लिया । योगिनी की चर्चा राजकुमारी रत्नवती के कानों तक भी पहुंची। उसने उसे आमंत्रित किया । योगिनी और रत्नवती का पारस्परिक संपर्क बढ़ते-बढ़ते प्रगाढ़ता में बदल गया । आखिर एक दिन योगिनी ने राजकुमारी से उसकी पुरुष विमुखता का कारण पूछा। राजकुमारी ने कहा, स्वामिनी! जो रहस्य मैंने आज तक अपने माता-पिता को भी नहीं बताया वह आपको बताती हूँ। मुझे बचपन में ही जातिस्मरण ज्ञान हो गया था । ज्ञान से मैंने जान लिया कि पूर्वजन्म में मैं एक हरिणी थी। मेरे साथी हरिण से मेरा गहरा अनुराग था। हरिण भी मेरे पूर्ण समर्पित था। उस पशुयोनि में रहते हुए एक मुनि के उपदेश से हम दोनों में धर्मबुद्धि का उदय हुआ और हम नियमित चौविहार उपवास की आराधना करने लगे। उसी उपवास की महिमा का यह फल हुआ कि मैं आयुष्य पूर्ण कर राजकुमारी बनी हूँ। मुझे विश्वास है कि मेरा मित्र हरिण भी निश्चय ही किसी राजकुल में उत्पन्न हुआ होगा। मैं मन ही मन उसी राजकुमार की प्रतीक्षा किया करती हूँ। वही राजकुमार मुझे मिले तो मैं उससे विवाह करूंगी अन्यथा आजीवन कुआंरी रहूगी ।
योगिनी रूपी सुमति ने कुछ क्षण के लिए आंखे बन्द कीं। आंखें खोलीं और बोला, राजकुमारी ! तुम्हारा अनुमान सच है। तुम्हारा मित्र हरिण भी राजकुल में ही उत्पन्न हुआ है, और शीघ्र ही तुमसे उसकी भेंट होने वाली है। राजकुमारी के यह पूछने पर कि वह उसे पहचानेगी कैसे, योगिनी ने कहा, कामदेव के मंदिर में जो पुरुष तुम्हारा मार्ग रोकेगा जान लेना वही तुम्हारे पूर्वजन्म का मित्र है ।
कुछ दिन उस नगर में रहकर योगिनी यक्ष के सहयोग से रत्नपुरी पहुंची। मूल रूप धारण कर मंत्री सुमति राजा रत्नशिखर से मिला और अपनी सफलता की आद्योपान्त कथा उसे सुना दी। सुनकर राजा • अभिभूत बन गया। आखिर मंत्री की योजनानुसार चलते हुए रत्नशिखर ने रत्नवती को प्राप्त कर लिया और उससे विवाह रचा कर उसे अपने नगर में ले आया ।
राजा रत्नशिखर और रानी रत्नवती ने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए। पूर्वजन्म में उन्होंने उपवास की आराधना की थी, वर्तमान में उन्होंने पौषधव्रत की आराधना की । उनके पौषधोपवास पूर्ण रूप से नियम
अनुरूप होते थे। सब त्याग कर भी वे पौषध को नहीं टलने देते थे। कहते हैं कि कई बार देवी-देवताओं ने भी अनकी पौषध-दृढ़ता की संयुक्त रूप से तथा अलग-अलग से कठिन परीक्षाएं लीं, पर वे अपनी दृढ़ता पर सदैव अटल और अडिग रहे ।
समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग करके राजा और रानी बारहवें देवलोक में गए। मंत्री सुमति पांचवें देवलोक में गया। देवलोक से च्यव कर ये तीनों ही भव्य जीव भरत क्षेत्र में मनुष्य भव धारण कर और विशुद्ध संयम क पालन कर मोक्ष प्राप्त करेंगे। - रत्नशिखर रास
रत्नश्रवा
राक्षसवंशी विद्याधर सुमाली का पुत्र और रावण, कुभकर्ण तथा विभीषण का जनक ।
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