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पुनः पुनः प्रेरित किया, पर सेठ अपने संकल्प से तिलमात्र भी विचलित नहीं हुआ। सेठ के इस संकल्प को लोगों ने निष्ठुरता और उसके धर्म को पाखण्ड की संज्ञा तक दे डाली। पर सेठ मौन रहे ।
उसके बाद शवयात्रा के प्रारंभ से लेकर शव को चिता पर रखे जाने तक देव ने गारुड़ी और वृद्धयोगी के रूप में उपस्थित होकर श्रेष्ठिपुत्र के उपचार के दो और उपक्रम किए। इन दोनों प्रसंगों पर भी रतिसार को सर्प की मृत्यु का संवाद बोलने के लिए कहा गया। पर रतिसार अपने निश्चय पर अडिग रहा । आखिर देवों ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। उन्होंने आकाश से रतिसार पर पुष्पवर्षा की।
जन-जन के अधरों पर रतिसार की दृढ़धर्मिता की चर्चा व्याप्त हो गई ।
रतिसुंदरी
साकेत नरेश नरकेशरी की पुत्री, एक अनिंद्य सुंदरी और शीलवती राजकुमारी । राजा ने रतिसुंदरी पुत्री का विवाह नन्दनदेश के राजा चन्द्र से किया। कुरुदेश का राजा महेन्द्र भी रतिसुंदरी के रूप पर मुग्ध था । उसने महाराज नरकेशरी के पास अपना दूत भेजा । ' ने नरकेशरी को महेन्द्र का सन्देश दिया कि वह उसकी पुत्री के साथ विवाह का इच्छुक है। नरकेशरी ने दूत को वस्तुस्थिति स्पष्ट की कि उनकी पुत्री का विवाह नन्दननरेश चन्द्र से हो चुका है। निराश दूत लौट गया । परन्तु दूत के निराशाजनक उत्तर से महेन्द्र राजा निराश नहीं हुआ। उसने दूत को चन्द्र राजा के पास इस सन्देश के साथ भेजा कि वह रतिसुंदरी को उसे समर्पित कर दे। दूत चन्द्र राजा के पास पहुंचा और उसने अपने राजा का संदेश उसे दिया । दूत का निंदनीय संदेश सुनकर राजा चन्द्र के नैनों में रक्त उतर आया। उसके पास सैन्य-साधन अल्प थे पर वह क स्वाभिमानी नरेश था। उसने दूत को तिरस्कृत करके भगा दिया। चंद्र जानता था कि कुरुनरेश एक भी व्यक्ति है और वह शान्त नहीं बैठेगा। उसने अपने सैनिकों को चौकन्ना कर दिया ।
अंततः महाराज चन्द्र का अनुमान सत्य सिद्ध हुआ । कुरुनरेश महेन्द्र ने नन्दनदेश पर आक्रमण कर दिया। उसके पास विशाल सेना और अपार शस्त्रास्त्र थे । चन्द्र की सेना ने पूरे साहस से उसका सामना किया । पर अंततः चन्द्र युद्ध में धराशायी हो गया । कुरुनरेश रतिसुंदरी को लेकर अपने देश चला गया। उसने रतिसुंदरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा । रतिसुंदरी ने युक्ति से कुरुनरेश को समझाने का निर्णय किया। उसने कहा, महाराज! मुझे पति-मृत्यु के शोक से उबरने के लिए चार मास का समय दिया जाए। उससे कुरुनरेश सहमत हो गया ।
रतिसुंदरी ने कठोर तप से अपने शरीर को जीर्ण बना दिया। उसकी देह का रक्त और मांस सूख गया। उसकी रूप-राशि विलीन हो गई। चार मास बीतते-बीतते उसे पहचान पाना कठिन हो गया। राजा उसके पास पहुंचा। रतिसुंदरी का अस्थिपञ्जर शरीर देखकर राजा आहत हो गया। पर उस अवस्था में भी वह उससे विवाह करने को उत्सुक था। राजा को यथारूप संकल्पित देखकर औषधादि के उपयोग से रतिसुंदरी
वमन कर दिया और राजा से कहा, वह उस वमन को चाटे । राजा ने कहा कि वह श्वान नहीं है जो वमन का उपभोग करे । रतिसुंदरी बोली, मैं महाराज चन्द्र की वमन हूँ। मेरा उपभोग करके आप श्वानवृत्ति को ही अपना रहे हैं।
कुरुनरेश अपने दुराग्रह पर अडिग था। उसने कहा, रतिसुंदरी ! तुम्हारे लाख उपदेश भी मेरे लिए व्यर्थ हैं। मैंने तुम्हारे साथ विवाह करने का प्रण किया है। अपने प्रण को मैं अवश्यमेव पूरा करूंगा। रतिसुंदरी ने कहा, महाराज! आपने उस रतिसुंदरी से विवाह करने का संकल्प किया था जो कभी • जैन चरित्र कोश •••
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