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________________ दण्ड पाकर भी रतिसार दुखी नहीं हुआ । श्लोक ने उसे नई प्राण ऊर्जा दी कि कष्ट पापों को काटने की है । प्रसन्नचित्त से राजकुमार महिष्मती नगरी का त्याग करके अलक्ष्य दिशा में बढ़ गया। तीन दिनों की निरंतर यात्रा के पश्चात् वह श्रावस्ती नगरी में पहुंचा। उद्यान में स्थित कामदेव के मंदिर में आकर वह ठहर गया। उधर राजकुमारी सौभाग्यमंजरी अपनी दो अंतरंग सखियों के साथ कामदेव की पूजा करने मंदिर में आईं। तीनों ही सखियां रतिसार पर मुग्ध हो गईं। रात्रि में तीनों ने ही रतिसार से गुप्त विवाह कर लिया । ज्ञात होने पर राजा ने इसका सख्त विरोध किया और रतिसार का वध करने का आदेश दिया । पर जिसके पुण्य प्रबल हों उसका कोई अहित नहीं कर सकता । रतिसार का पुण्य पराक्रम देखकर राजा झुक गया और उसने धूमधाम से अपनी पुत्री और उसकी दोनों अंतरंग सखियों का विवाह रतिसार से सम्पन्न कर दिया। साथ ही रतिसार का राजतिलक करके वह प्रव्रजित हो गया । रतिसार का धवल यश चतुर्दिक् में व्याप्त था । उसके पिता सुभूम को भी अपनी भूल पर प्रायश्चित्त हो रहा था। उसने पुत्र को आमंत्रित कर और उसका राजतिलक करके प्रव्रज्या धारण कर ली । रतिसार ने सुदीर्घ काल तक महिष्मती और श्रावस्ती का राज्यभार वहन किया। उसके शासन काल में प्रजा बहुत सुखी थी। एक बार रतिसार अपनी तीनों रानियों के साथ प्रेमालाप में व्यस्त था । उसने अपनी रानी सौभाग्यमंजरी के कंगण रहित हाथ देखे तो उसे वे शोभाहीन लगे। फिर उसने उसके एक-एक करके सभी आभूषण उतार दिए। रानी की शोभा विदा हो गई। राजा का चिंतन पत्नी के शरीर से स्वशरीर पर और आत्मतत्व पर सुस्थिर बन गया। अन्यत्व आदि भावनाओं की पराकाष्ठ पर पहुंचकर उसी अवस्था में रतिसार केवल हो गए। तीनों पत्नियों ने भी केवली भगवंत का उपदेश श्रवण कर दीक्षा धारण की और क्रमशः सभी परमपद के अधिकारी बने । (ख) रतिसार राजगृह नगरी का रहने वाला एक दृढ़धर्मी श्रावक । वह जीवाजीव का ज्ञाता था और प्रत्येक प्राणी को आत्मतुल्य मानता / जानता था। एक बार देवराज इन्द्र ने उसके अहिंसाव्रत की भूरि-भूरि प्रशंसा देवसभा में करते हुए कहा कि श्रावक रतिसार प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव रखता है। वह अपने मैत्रीभाव में इतना सुदृढ़ है कि जगत की कोई भी शक्ति उसे उसके धर्म से विचलित नहीं कर सकती है। देवसभा में उपस्थित दो देव रतिसार की परीक्षा लेने के लिए पृथ्वी पर आए । एक देव ने कृष्ण विषधर का रूप धारण करके रतिसार के इकलौते पुत्र आरक्षक कुमार को डस लिया। कुछ ही क्षण में पीड़ा से छटपटाते हुए आरक्षक कुमार का शरीर शान्त हो गया । सेठ रतिसार और असकी पत्नी रम्भा के लिए यह घटना वज्रपात के समान थी। सेठ ने तो कुछ धैर्य रखा पर सेठानी के शोक का पारावार न था । उधर परिवार और पास-पड़ौस में विलाप चल रहा था तथा साथ ही शवयात्रा के लिए अर्थी बांधी जा रही थी, उसी समय दूसरा देव सपेरे का रूप धर कर वहां उपस्थित हुआ । उसने लोगों को अपनी विद्या के बारे में बताया और विश्वस्त किया कि सर्प के दंश का अचूक उपचार उसके पास है। लोग उसके दाएं-बाएं झूम गए और श्रेष्ठि-पुत्र के उपचार की प्रार्थना करने लगे। सपेरे ने शव के निकट आसन जमा दिया और मन्त्रोच्चार करने लगा। फिर उसने श्रेष्ठि रतिसार को बुलाया और उससे कहा कि वह यह वाक्य बोले- 'सर्प मर जाए और उसका पुत्र जीवित हो जाए ।' रतिसार ने कहा, मैं पुत्र के जीवन का वाक्य तो बोल सकता हूँ, पर सर्प के मरण का वाक्य नहीं बोलूंगा। मैं किसी भी जीव के अहित की कामना नहीं कर सकता हूँ। सपेरे ने श्रेष्ठी को वैसा बोलने के लिए *•• जैन चरित्र कोश *** 477
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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