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(क) मेघरथ राजा
माध्यमिका नगरी के एक धर्मात्मा राजा। एक बार महाराज मेघरथ के महल में सुधर्मा नामक एक मासोपवासी अणगार पधारे। महाराज ने अत्यच्च भावों से मनिवर को आहार दान दिया। सपात्र दान से महाराज ने जहां अतिशय पुण्य का अर्जन किया, वहीं भारी कर्मपुंज का निर्जरण भी किया। भवान्तर में महाराज मेघरथ सौगंधिका नगरी में राजकुमार जिनदास कुमार के रूप में जन्मे। जिनदास ने भगवान महावीर .. के चरणों में प्रव्रज्या धारण कर परम पद प्राप्त किया। (देखिए-जिनदास कुमार) -विपाक सूत्र, द्वि. श्रु.अ. 5 (ख) मेघरथ राजा
वर्तमान अवसर्पिणी काल के सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी पूर्वभव में पूर्व महाविदेह की पुंडरीकिनी नगरी के मेघरथ नामक राजा थे। राजा मेघरथ अतिशय करुणाशील राजा थे। उनकी करुणा और शरणागतवात्सल्य की यश-सुरभि देवलोकों तक पहुंच गई थी। एक बार राजा मेघरथ की शरणागत-वात्सल्य भाव की प्रशंसा देवराज इंद्र ने की। इंद्र के कथन की सत्यता जानने के लिए एक देव राजा मेघरथ के पास आया। उसने देवमाया से एक कबूतर और एक बाज की विकुर्वणा की। बाज कबूतर पर झपटा। जान बचाने के लिए कबूतर राजा मेघरथ की गोद में जा बैठा। राजा ने प्रेमपूर्वक कबूतर को सहलाया। तभी बाज वहां पहुंचा और उसने राजा से अपने शिकार की याचना की। राजा ने कबूतर को अपना शरणागत बताया और कहा-मैं कबूतर को तुम्हें नहीं दूंगा। बाज ने कहा-राजन्! मैं भूखा हूं, और यह मेरा शिकार है। आप इसे नहीं देंगे तो मैं भूखा रह जाऊंगा।
राजा ने बाज से विविध खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया। बाज ने राजा के प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा-'मैं मांसाहारी पक्षी हूं, मांस ही मुझे प्रिय है। यदि आप कबूतर की रक्षा करना चाहते हैं तो उसके वजन के तुल्य मांस का प्रबंध मेरे लिए कर दीजिए!'
मेघरथ ने कुछ क्षण चिंतन किया और बोले-'मैं अपने शरीर का मांस देने के लिए तैयार हूं। बाज की स्वीकृति पर राजा ने तराजू मंगाया और एक पलड़े में कबूतर को बैठाकर दूसरे पलड़े में अपने शरीर का मांस काटकर चढ़ाने लगे। परिजनों-पुरजनों ने राजा को रोकने का प्रयत्न किए, पर राजा अपने निर्णय पर अटल .. रहे। राजा ने काफी मांस तराजू पर चढ़ा दिया पर कबूतर का पलड़ा अपने स्थान से हिला तक नहीं। आखिर राजा उठे और स्वयं उस पलड़े में बैठ गए।
राजा को कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर को अर्पित करते देखकर देवता दंग रह गया। उसने अपनी माया समेट ली और अपनी परीक्षा के लिए राजा से क्षमा मांगी। देवों ने राजा पर पुष्प वर्षा की।
जीवन के उत्तर पक्ष में महाराजा मेघरथ ने संयम-पथ चुना और उग्र तपश्चरण द्वारा तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। आयु की समाप्ति पर वे सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव बने। कालक्रम से वहां से च्यव कर हस्तिनापुर नरेश विश्वसेन की रानी अचिरादेवी की रत्नकुक्षी से सोलहवें तीर्थंकर के रूप में जन्मे। (देखिए-शांतिनाथ तीर्थंकर) मेघवाहन
लंकाधिपति रावण का पुत्र । राम-रावण युद्ध में उसने अच्छा रणकौशल दिखाया। अंततः श्री राम के पक्ष के वीरों ने उसे बन्दी बना लिया जहां से उसे युद्धोपरान्त ही मुक्ति मिली। आखिर अप्रमेयबल नामक केवली मुनि से अपना पूर्वभव सुनकर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ। दीक्षा धारण कर उसने आत्मकल्याण किया।
-जैन रामायण .. जैन चरित्र कोश --
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