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करने के लिए न तो तैयार था और न ही सक्षम था। उसने अपने नगर के द्वार बन्द करवा दिए। वह इस आकस्मिक आपदा को सह न सका और हृदयगति रुक जाने के कारण कालधर्म को प्राप्त हो गया । मृगावती के लिए यह क्लिष्टतम क्षण था। परन्तु वह साहसी और वीर महिला थी । उसने अपने मानसिक सन्तुलन को डावांडोल नहीं बनने दिया । कूटनैतिकता का आश्रय लेते हुए उसने चण्डप्रद्योत के पास संदेश भिजवाया कि उसे पति-मृत्यु के विषाद से मुक्त होने के लिए कुछ समय दिया जाए उसके बाद वह स्वयं उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लेगी। मृगावती की इस कूटनीति से चण्डप्रद्योत परास्त हो गया और प्रसन्नता से उछलता हुआ अपने देश को लौट गया ।
मृगावती ने अपने पति का संस्कार किया। तत्पश्चात् उसने अपनी सैन्यशक्ति को संगठित किया और अन्न के कोठार भरे। साथ ही वह अपने अल्पायुष्क पुत्र उदयन को भी राजनीति और धर्मनीति की शिक्षा देने लगी । इस मध्य चण्डप्रद्योत ने मृगावती के पास अपना दूत भेजा और संदेश दिया कि अब वह अपने वचनानुसार उज्जयिनी आए। सुनकर मृगावती की भृकुटी टेढ़ी हो गई। उसने भर्त्सनापूर्ण शब्दों से दूत को तिरस्कृत करते हुए भगा दिया। रहस्य जानकर चण्डप्रद्योत अपनी मूर्खता पर झेंप गया और उसने पुनः कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। पर बुद्धिमती महारानी अपने दुर्ग को सुदृढ़ बनवा चुकी थी। उसने दुर्ग द्वार बन्द करवा दिए। चण्डप्रद्योत की सेना दुर्ग को तोड़ न सकी । चण्डप्रद्योत कामान्ध और क्रोधान्ध था । उसने नगर के बाहर ही अपना सैन्य शिविर डाल दिया ।
महारानी मृगावती ने तप का आश्रय लिया और धर्मचक्रवर्ती महाश्रमण महावीर को स्मरण किया । भक्ति और पुकार में अपार बल होता है। सो भगवान महावीर कौशाम्बी के बाहर पधार गए। भगवान के पदार्पण से क्रोध, काम और वैमनस्य के भाव शमित हो गए। चण्डप्रद्योत स्वयं भगवान का भक्त था । उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि जब तक महावीर कौशाम्बी में विराजें तब तक पूर्ण रूप से अहिंसा का पालन किया जाए। भगवान महावीर के आगमन की सूचना पाते ही महारानी मृगावती ने भी अपनी नगरी के द्वार खुलवा दिए। वह महावीर के समवसरण में गई। भगवान ने उपदेश दिया। मृगावती ने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। दीक्षा से पूर्व उसने अपने छलपूर्ण व्यवहार के लिए चण्डप्रद्योत से क्षमायाचना की। इससे चण्डप्रद्योत का हृदय भी परिवर्तन हो गया। उसने भी अपनी दुष्टता के लिए मृगावती से क्षमा मांगी और उसे वचन दिया कि वह उसके पुत्र उदयन का राजतिलक करेगा और सदैव उसका संरक्षण करेगा।
दीक्षित होकर मृगावती आत्मसाधना में लीन बन गई। किसी समय वह समय का भान न रखते हुए सूर्योदय के पश्चात् भी महावीर के समवसरण में बैठी रही। सहसा उसे भान हुआ तो वह शीघ्र कदमों से अपनी गुरुणी चन्दनबाला के पास उपाश्रय में पहुंची। साध्वी मर्यादा के उल्लंघन करने पर चन्दनबाला ने मृगावती को उपालंभ दिया। मृगावती पहले ही पश्चात्ताप पूर्ण बनी हुई थी। गहन पश्चात्ताप से क्षपक श्रेणी चढ़कर उसने केवलज्ञान पा लिया। त्रिलोक उसके ज्ञान में झलक उठे। उसी समय एक कृष्णसर्प को महासती चन्दनबाला के पट्टे पर से नीचे लटके हाथ की ओर बढ़ते हुए मृगावती ने देखा। उसने गुरुणी का हाथ ऊपर को उठा दिया। इससे चन्दनबाला की निद्रा टूट गई । चन्दनबाला ने मृगावती से वैसा करने का कारण पूछा तो उसने सर्प की बात बता दी। घने अन्धकार में कृष्णसर्प कैसे दिखाई दे सकता है, ऐसा सोचकर चन्दना नेमृगावती से पूछा कि क्या उसे ज्ञान प्राप्त हो गया है। महासती मृगावती ने विनम्रता से कहा कि उसे उनकी कृपा से ज्ञान की प्राप्ति हो गई है।
चन्दनबाला को बहुत पश्चात्ताप हुआ कि उसने एक पुण्यात्मा को कठोर शब्दों में उपालम्भ दिया । ••• जैन चरित्र कोश
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