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राजा से लेकर रंक तक श्री मायाराम जी म. के चरणों में उपस्थित होते थे। उदयपुर के महाराणा की प्रार्थना पर मुनि श्री ने वहां पर चातुर्मास किया। एक अवसर पर एक साथ 22 नरेश मुनि श्री के दर्शनों के लिए उपस्थित हुए और उनका उपदेश सुनकर मुग्ध हो गए।
मुनि श्री मायाराम जी म. एक कठोर संयमी मुनिराज थे। उनका संयममय जीवन स्वयं एक चमत्कार था। वे अनेक लब्धियों और सिद्धियों के धारक महामुनि थे। उनके मुख से जो भी वचन निकलता था वह पूर्ण होता था। कहते हैं कि देवता भी उनके प्रवचनों को अदृश्य रहकर श्रवण करते थे, ऐसा अनेक घटनाओं से प्रमाणित होता है।
उनके सात शिष्य हुए जिनकी नामावली इस प्रकार है-(1) श्री नानकचंद जी म., (2) श्री देवीचंद जी म., (3) श्री छोटेलाल जी म., (4) श्री वृद्धिचंद जी म., (5) श्री मनोहरलाल जी म., (6) श्री कन्हैयालाल जी म. एवं (7) श्री सुखीराम जी म.। गणावच्छेदक श्री जवाहर लाल जी म., तपोकेसरी श्री केसरी सिंह जी म. उनके सहयोगी मुनिराज थे। उनकी शिष्य परंपरा में तपस्वी रत्न श्री फकीरचंद जी म., व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलाल जी म., योगिराज श्री रामजीलाल ही म. जैसे संयम और संन्यास के ध्वजारोही महामुनि हुए। वर्तमान में भी मुनि मायाराम परम्परा के कई दर्जन मुनिराज हैं जो अपनी क्रियानिष्ठा और विद्वत्ता के रूप में अपनी विशेष पहचान रखते हैं।
हरियाणा में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का अधिकांश श्रेय श्री मायाराम जी म. को ही जाता है।
भाद्र शुक्ला 11, संवत् 1969 में मुनि श्री मायाराम जी म. का भिवानी नगर में स्वर्गवास हुआ। मुनिसुन्दर (आचार्य)
तपागच्छ परम्परा के एक तेजस्वी आचार्य। उनके गुरु का नाम सोमसुन्दर था।
आचार्य मुनि सुन्दर का जन्म वी.नि. 1906 में हुआ और मात्र 8 वर्ष की अवस्था में उन्होंने मुनिदीक्षा धारण की। बाल्यकाल से ही मुनिसुन्दर मेधावी थे। गुरु सान्निध्य में आगमाध्ययन से उनकी प्रज्ञा प्रखर बन गई। अपने युग के विश्रुतवादी मुनि के रूप में वे चर्चित रहे। उनकी वाद निपुणता से प्रभावित होकर गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरखां ने उनको ‘वादिगोकुल संड' की उपाधि से विभूषित किया था। सिरोही नरेश सहस्रमल्ल भी आचार्य मुनिसुन्दर की प्रतिभा से विशेष प्रभावित था और उनके कथन पर उसने अपने राज्य में अमारि घोषित की थी।
आचार्य मुनिसुन्दर ने कई ग्रन्थों की रचना भी की थी। वी.नि. 1973 अथवा 1969 में उनका स्वर्गवास हुआ।
__ आचार्य मुनिसुन्दर सूरि 'सिद्धसरस्वती सूरि' इस अपर नाम से भी विश्रुत हैं। मुनिसुव्रत स्वामी (तीर्थंकर) ___ जिन परम्परा के बीसवें तीर्थंकर । राजगृही नरेश महाराज सुमित्र और महारानी पद्मावती प्रभु के जनक और जननी थे। यौवनकाल में अनेक राजकुमारियों से प्रभु का पाणिग्रहण हुआ। अनेक वर्षों तक प्रभु ने राज्य भी किया। जब भोगावली कर्मों का निरसन हो गया तब प्रभु ने वर्षीदान देकर मुनिव्रत ग्रहण किया। ग्यारह मास की साधना में ही प्रभु ने केवलज्ञान को साध लिया और तीर्थ की स्थापना की। असंख्य लोगों के लिए प्रभु कल्याण का द्वार बने। ज्येष्ठ वदी नौवीं को प्रभु निर्वाण को उपलब्ध हो गए।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ... जैन चरित्र कोश ..
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