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काष्ठफलक पर लिटाकर अपने घर ले गया और समुचित औषधोपचार से मुनि की सेवा करने लगा। सेठ की सेवा से मुनि मुनिपति शनैः-शनैः स्वस्थ होने लगे। पूर्ण स्वास्थ्य लाभ के लिए सेठ की प्रार्थना पर मुनि ने उसके घर पर ही वर्षावास की स्वीकृति दे दी।
कुंचिक सेठ धर्मात्मा तो था पर धन के प्रति उसकी गहन आसक्ति थी। जीते जी वह अपने धन को - अपने पुत्र के साथ भी बांटने को तैयार न था। पर अन्तर्मन में वह सदा सशंकित रहता था कि कहीं उसका
पुत्र उसका धन न चुरा ले। उसने निश्चय किया कि वह अपने धन को किसी ऐसे गुप्त स्थान पर छिपा दे जहां कोई उसे चुरा न सके। बहुत मनोमन्थन के पश्चात् उसने अपना समस्त धन उस कक्ष में जमीन खोद कर दबा दिया जिसमें मुनि वर्षावास व्यतीत कर रहे थे। पर इस भेद को सेठ का पुत्र भांप गया और अवसर पाकर उसने पिता का धन अपहृत कर लिया। एक दिन जब सेठ अपने धन को संभालने लगा तो धन को वहां न पाकर सन्न रह गया। उसका मन मुनि के प्रति शंका से भर गया कि निश्चित ही मुनि ने उसके धन का हरण कर लिया है। उसने अनेकानेक कृतघ्नता के दृष्टान्त देकर मुनि को कृतघ्न सिद्ध करने की कोशिश की। मुनि ने भी कई दृष्टान्त सुनाकर उसके अविश्वास को दूर करने का प्रयत्न किया। परन्तु सेठ का संदेह
वित बना रहा। आखिर सेठ के आरोप और मुनि के समताभाव से प्रेरित बनकर सेठ के पुत्र ने सच को उजागर किया कि धन का हरण उसने किया है, मुनि ने नहीं। सच को जानकर सेठ सहम गया। उसने मुनि से पुनः-पुनः क्षमा मांगी।
पश्चात्ताप की ज्वाला कुंचिक के चित्त पर इतनी प्रखर बनी कि उसने अविश्वास के निधान धन और घर का त्याग कर मुनि-दीक्षा धारण कर ली। विशुद्ध संयम साधना करते हुए मुनि मुनिपति तथा कुंचिक मुनि देहोत्सर्ग कर प्रथम देवलोक में गए। वहां से महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष जाएंगे।
-मणिपति चरित्र (आचार्य हरिभद्र कृत) मुनि मायाराम
स्थानकवासी परम्परा के एक तेजस्वी मुनि। हरियाणा प्रान्त (तत्कालीन पंजाब) के ग्राम बड़ौदा में मुनि श्री मायाराम जी म. का जन्म संवत् 1911 सोमवार आषाढ़ वदि 2 (12 जून 1854) में जाट जाति के चहल गोत्र में हुआ। उनके पिता का नाम जोतराम और माता का नाम शोभावती था। जोतराम ग्राम प्रमुख नम्बरदार थे। पिता के पश्चात मायाराम ने इस पद पर रहकर ग्राम की उन्नति के कई महनीय कार्य किए। ज्योतिर्विद मुनीश्वर श्री गंगाराम जी एवं श्री रतिराम जी से मायाराम जी ने जैन धर्म का प्रारंभिक शिक्षण प्राप्त किया। सामायिक सहित श्रावक के व्रत उन्होंने अंगीकार किए। उनकी आगमनिष्ठा इतनी उत्कष्ट थी कि गृहवास में रहते हुए ही उन्होंने पांच आगम कण्ठस्थ कर लिए थे। विवेक और विचार में वे विशेष परिपक्व थे। यौवनावस्था में भी उनकी चारित्र निष्ठा अप्रतिम थी। लगभग 23 वर्ष की अवस्था में उन्होंने संवत् 1934, माघ शुक्ल 6 को पटियाला नगर में मुनि श्री हरनामदास जी म. से दीक्षा व्रत अंगीकार किया। मुनि-दीक्षा अंगीकार कर उन्होंने आगमों का गंभीर अध्ययन किया और अट्ठाइस जैन आगम कण्ठस्थ किए। स्वल्प संयम पर्याय में ही वे संयम के प्रतिमान-पुरुष के रूप में अर्चित हुए। उनके युग में उन्हें 'संयम सुमेरु' और 'चारित्र चूड़ामणि' जैसे संबोधनों से संबोधित किया गया। तत्युगीन कई जैन आचार्यों ने मुनि श्री मायाराम जी के संयमनिष्ठ जीवन की उदात्त शब्दों में प्रशस्तियां कही थीं। मुनि श्री मायाराम जी एक प्रभावशाली वक्ता और मधुर कण्ठ के स्वामी थे। उनकी वाणी में चुम्बकीय आकर्षण था जो श्रोताओं को अपनी ओर खींच लेता था। 'पंजाब की कोयल' के नाम से आज भी उन्हें पुकारा / जाना जाता है। ... 448 .
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