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की बधाइयां देकर तथा पारितोषिक पाकर विदा हुए। संयोग से उस अवधि में आचार्य भद्रबाहु भी नगर में पधारे हुए थे। राजा के कान जिनधर्म-द्वेषियों द्वारा भरे गए कि - जैन आचार्य भद्रबाहु बधाई देने नहीं आए हैं। राजा बुद्धिमान और दूरदर्शी था। वह स्वयं आचार्य भद्रबाहु के पास पहुंचा और वन्दन कर बोला, भगवन् ! मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। सभी धर्मों के आचार्य मेरे दरबार में पधारे और राजकुमार को आशीर्वाद देकर गए। परन्तु आप नहीं पधारे। क्या आपको राजकुमार के जन्म से प्रसन्नता नहीं हुई?
आचार्य श्री ने गंभीर स्वर में कहा, राजन् ! व्यर्थ आशीर्वाद मैं कैसे दूं, यही सोचकर नहीं आया। राजा आचार्यश्री की बात समझ न सका । उत्सुकतापूर्वक उसने प्रार्थना की, भगवन् ! स्पष्ट फरमाइए, आपका इंगितार्थ मैं समझ नहीं पाया !
आचार्य श्री ने स्पष्ट कर दिया कि अल्पायुष्क राजकुमार को आशीर्वाद देने का अर्थ ही कितना है । राजा ने आचार्य श्री के वक्तव्य को गंभीरता से लिया और पूछा, भगवन्! आप इतना जानते हैं तो यह भी अवश्य बताइए कि राजकुमार का निधन कब और कैसे होगा ? आचार्य श्री ने कहा, सातवें दिन मार्जार के निमित्त से राजकुमार का निधन होगा।
राजा अपने महल में लौट आया। उसने महल पर सख्त पहरे लगा दिए। कहते हैं कि राजाज्ञा से राज्य की समस्त बिल्लियों को पकड़कर बन्द कर दिया गया। राजा स्वयं तलवार लेकर द्वार पर पहरा देने लगा । सातवें दिन अचानक द्वार की अर्गला टूटकर शिशु राजकुमार पर आ गिरी, जिससे उसका निधन हो गया ।
वज्राहत राजा ने पुत्र का अंतिम संस्कार किया। बाद में वह आचार्य भद्रबाहु के पास पहुंचा। उसने वन्दन कर आचार्य श्री से कहा, भगवन् ! मेरे पुत्र का निधन हो गया है । परन्तु आप द्वारा बताया गया निमित्त असत्य सिद्ध हुआ है। राजकुमार की मृत्यु मार्जार के निमित्त से नहीं, बल्कि अर्गला के टूटने से हुई है। आचार्य श्री ने अर्गला मंगवाई और उसका निरीक्षण किया। अर्गला पर मार्जार का चित्र अंकित था । उसे देखकर राजा आचार्य श्री के सूक्ष्म ज्योतिष ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ और उनका भक्त बन गया।
आचार्य भद्रबाहु का विमल सुयश राज्य में सर्वत्र फैल गया। उससे वराहमिहिर की खिन्नता बढ़ गई। अकाल ही काल करके वह व्यंतर जाति का देव बना । तब भी आचार्य श्री से उसका ईर्ष्याभाव न्यून नहीं हुआ। पर तेजस्वी आचार्य का अहित करने में वह असमर्थ था । उसने आचार्य श्री के प्रभाव को क्षीण करने के लिए जैन समाज में रोग फैला दिए । उपचारादि प्रयोगों से भी श्रावक-श्राविकाओं के रोग ठीक नहीं हुए। जैन समाज ने इसे दैवी प्रकोप माना । अग्रगण्य श्रावक आचार्य भद्रबाहु के चरणों में पहुंचे और व्यंतर बाधा की बात से उन्हें अवगत कराया। तब आचार्य श्री ने 'उवसग्गहर' स्तोत्र की रचना की । वह स्तोत्र जैन समाज को आचार्य श्री ने प्रदान किया और कहा, इस स्तोत्र के जाप से समस्त व्यंतर बाधाएं दूर हो जाएंगी। घर-घर में स्तोत्र का जाप होने लगा । स्तोत्र के प्रभाव के समक्ष व्यंतर की शक्ति पराभूत बन गई। आचार्य श्री का यश पूर्वापेक्षया और अधिक बढ़ गया।
आचार्य भद्रबाहु कृत 'उवसग्गहर स्तोत्र' वर्तमान में भी विघ्न विनाशक स्तोत्र के रूप में जैन जगत में पढ़ा जाता है। महान ज्योतिर्विद् तथा नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का समय वी.नि. की दसवीं- ग्यारहवीं ती माना जाता है। - प्रबन्ध कोश
(क) भद्रा
एक राजकुमारी । (देखिए - हरिकेशी मुनि)
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