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आचार्य भद्रबाहु अपने युग के एक महान आचार्य थे। उनके समय में द्वादश वर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा। श्रमण संघ को इस अवधि में पर्याप्त परीषहों और उपसर्गों को झेलना पड़ा, पर आचार्य श्री ने अपनी दूरदर्शिता और कुशल नेतृत्व से संघ को पुनः समुन्नत रूप प्रदान किया। अपने उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने स्थूलभद्र को चुना। आचार्य भद्रबाहु के चार शिष्य हुए, जिनकी नामावली क्रमशः इस प्रकार है-(1) स्थविर गौदास, (2) स्थविर अग्निदत्त, (3) जन्नदत्त, (4) सोमदत्त।
इनके अतिरिक्त भी उनके चार शिष्य और थे, जो विशिष्ट तपस्वी और अभिग्रहधारी मुनि थे। उनकी नामावली अनुपलब्ध है। ___वी.नि. 170 में श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास हुआ। उनके साथ ही श्रुतकेवली परम्परा का व्यवच्छेद हो गया।
-नंदी स्थविरावली / कल्पसूत्र स्थविरावली / परिशिष्ट पर्व-1 भद्रबाहु आचार्य के चार शिष्य
राजगृह नगरी के चार वणिकों ने आचार्य भद्रबाहु के उपदेश से प्रतिबोध पाकर श्रामणी दीक्षा धारण की। कालान्तर में विहार करते हुए वे चारों मुनि राजगृह पधारे। शीत का प्रचण्ड प्रकोप था। प्रथम मुनि को वैभारगिरि पर संध्या हो गई, अतः वह वहीं ठहर गया। दूसरे मुनि को वैभारगिरि पर्वत के नीचे, तृतीय को पथ में और चतुर्थ को राजगृह नगरी के द्वार पर पहुंचते-पहुंचते संध्या हुई। मुनि उक्त स्थानों पर ही ठहर गए और शीत की उपेक्षा करते हुए ध्यान-साधना में लीन हो गए। शीत के प्रचण्ड प्रकोप के कारण पर्वत शिखर पर ध्यानस्थ मुनि का रात्रि के प्रथम प्रहर में, पर्वत के नीचे ध्यानस्थ मुनि का रात्रि के द्वितीय प्रहर में, नगर पथ पर ध्यानस्थ मुनि का रात्रि के तृतीय प्रहर में और नगर-द्वार पर ध्यानस्थ मुनि का रात्रि के अंतिम प्रहर में स्वर्गवास हो गया। चारों मुनियों ने शीत परीषह का सामना करते हुए समभाव से प्राणोत्सर्ग तो कर दिया पर मन से भी किसी उष्ण स्थान की शरण लेने का विचार नहीं किया। -उत्त. वृत्ति. भद्रबाहु द्वितीय (आचार्य) __जैन परम्परा के एक विद्वान आचार्य। ये श्रुतकेवली भद्रबाहु से भिन्न हैं और इनका समय वी.नि. की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी है। नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु की ख्याति है। आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग आदि कई आगमों पर उन्होंने नियुक्तियां लिखीं, जो उनकी आगम निष्ठा
और ज्ञान गाम्भीर्य का प्रमाण है। साथ ही इस रूप में जैन समाज पर और विशेष रूप से अध्येता वर्ग पर उनका महान उपकार है। ___ आचार्य भद्रबाहु का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के प्रतिष्ठानपुर नगर में हुआ था। जन्मना वे ब्राह्मण थे। उनके लघु सहोदर का नाम वराहमिहिर था। दोनों भाइयों ने श्रामणी दीक्षा अंगीकार की। भद्रबाहु विचक्षण
और विनीत थे। अपनी सूक्ष्मग्राही बुद्धि के बल पर आगम वाङ्मय को उन्होंने हृदयस्थ कर लिया। वराहमिहिर का स्वभाव भिन्न था। उसमें अध्ययन रुचि न्यून और यशःकामना की प्रधानता थी। आचार्य श्री ने भद्रबाहु को आचार्य पद प्रदान किया। इससे वराहमिहिर ईर्ष्याग्रस्त हो गया। साधु वेश का त्याग कर वह प्रतिष्ठानपुर चला गया और वहां के राजा जितशत्रु का प्रियपात्र बन गया। उसे राजसम्मान की प्राप्ति हुई और वह राज्य का बड़ा ज्योतिर्विद् माना जाने लगा। अग्रज भद्रबाहु के प्रति उसके मन में द्वेष था। उसने प्रच्छन्न रूप से भाई की सुख्याति को नष्ट करने के भरसक यत्न किए पर असफल रहा। __एक बार राजा को पुत्र प्राप्ति हुई। उसके दरबार में सभी धर्मों के आचार्य उपस्थित हुए और पुत्ररत्न ..-3800
- जैन चरित्र कोश ...