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में रहने लगा। फिर किसी समय उसने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार कर लिए और दृढ़ चित्त से उनका पालन करने लगा ।
एक बार किसी राजा ने उस राज्य पर आक्रमण किया तो बंकचूल ने अपूर्व पराक्रम दिखाते हुए शत्रु राजा को पराजित कर दिया। पर युद्ध के अंत में एक विष बुझा तीर उसे लगा । अनेक वैद्यक प्रयत्नों से भी जब वह स्वस्थ न हुआ तो किसी वृद्ध वैद्य ने राजा को सलाह दी कि कौव्वे के मांस के सेवन से ही बंकचूल स्वस्थ हो सकता है। पर अपनी प्रतिज्ञा की बात कहते हुए बंकचूल ने कौव्वे के मांस न खाने का अपना संकल्प सुना दिया । आखिर उसका समाधि सहित निधन हो गया और वह बारहवें देवलोक में देव बना । अपनी दृढ़धर्मिता के कारण ही बंकचूल चोर से राजकुमार और राजकुमार से देव बना ।
(क) बंधुदत्त
कंचनपुर नगर का एक श्रेष्ठीपुत्र। एक बार वह व्यापार के लिए ताम्रलिप्ति नगरी में गया। वहां पर उसका परिचय रतिसार नामक नगर सेठ से हुआ । रतिसार बंधुदत्त के मधुर व्यवहार और सुन्दर व्यक्तित्व से अतीव प्रभावित हुआ और उसने अपनी पुत्री बंधुमती का विवाह उससे कर दिया। बंधुदत्त को आगे के व्यापार के लिए रत्नद्वीप जाना था। वह पत्नी को उसके पितृगृह में ही छोड़कर रत्नद्वीप के लिए प्रस्थित हुआ। पर प्रस्थान के थोड़ी देर बाद ही उसका जहाज चक्रवाती लहरों में फंसकर टूट गया। जहाज के पट्टे के सहारे तैरता हुआ बंधुदत्त किनारे आ लगा। वह एक धर्मशाला में जाकर बैठ गया । अपने भाग्य पर उसे बड़ा शोक हो रहा था । उसने धर्मशाला के नौकर को समाचार देकर श्रेष्ठी रतिसार के पास भेजा कि उनका जामाता जहाज के टूट जाने के कारण धर्मशाला ठहरा हुआ है।
बंधुमती उद्यान भ्रमण को गई। वहां एक चोर ने उसकी कलाई मरोड़कर कलाई से स्वर्णकंगन उड़ा लिया। संयोग से नगररक्षक उधर से गुजर रहा था। स्थिति से अवगत बनकर वह चोर की खोज में निकला। चोर को खोजते खोजते वह धर्मशाला में पहुंचा। चोर वहीं छिपा हुआ था। पकड़े जाने के भय से चोर ने कंगन बंधुत्त के निकट रख दिया। नगररक्षक ने बंधुदत्त को चोर घोषित कर दिया। राजा ने उसे शूली का दिया । बंधुत्त को शूलि-स्थल पर ले जाया गया।
उधर सेठ धर्मशाला में पहुंचा तो उसे ज्ञात हुआ कि उसके जामाता को शूली का दण्ड मिला है। सेठ दौड़कर राजा के पास गया और उससे कहा कि बंधुदत्त मेरा जामाता है और वह मेरी ही पुत्री का कंगन भला क्यों चुराएगा। उसकी रक्षा की जाए। नगरसेठ के कहने पर राजा स्वयं वधस्थल पर पहुंचा और बंधुदत्त को मुक्त करवाया। बंधुदत्त ने स्पष्ट किया कि वह नहीं जानता कि उसके पास उक्त कंगन किसने रखा । पर यह सच्चाई है कि मैं चोर नहीं हूं और चौर्यकर्म स्थान पर मर जाना श्रेष्ठ मानता हूं। राजा ने अपने अविचारपूर्ण निर्णय के लिए बंधुदत्त से क्षमा मांगी। नगरसेठ जामाता को अपने घर ले गया । पुण्ययोग से एक मुनि ताम्रलिप्ति नगरी में पधारे। मुनि-वन्दन के लिए सेठ रत्नसार सपरिवार मुनि . चरणों में गया। मुनि चार ज्ञान से सम्पन्न थे। सेठ रत्नसार ने मुनि से पूछा, भगवन् ! निर्दोष होते हुए भी मेरे जामाता को शूली का दण्ड क्यों मिला? मुनि ने कहा, सेठ! यह सब कर्मों की विचित्रता है। कर्म के नचाए प्रत्येक प्राणी नाचता है। पूर्वजन्म के एक कठोर वचन के परिणाम स्वरूप ही तुम्हारे जामाता को शूली का दण्ड अपने लिए सुनना पड़ा।
मुनि के वचन सुनकर रत्नसार सहित बंधुदत्त आदि भी अपने पूर्वभव को सुनने को उत्सुक हो गए । जैन चरित्र कोश •••
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