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के लिए सुखद आश्चर्य बन गया। उसके कथन पर लोगों ने सहज ही आस्था व्यक्त की। उससे हिंसा के प्रति लोगों में उदासीनता और धर्म के प्रति उत्साह उत्पन्न हुआ।
जैन इतिहास में आर्य प्रियग्रंथ मुनि एक मंत्रवादी मुनि के रूप में ख्यात हैं। (क) प्रियदर्शना
वसन्तपुर नरेश महाराज भुजबल की पुत्री, एक अक्षय बुद्धि सम्पन युवती। कनकमंजरी नामक उसकी एक सहोदरा थी। राजा के कोई पुत्र नहीं था। एक बार एक वाक्य पर महाराज भुजबल और उनकी पुत्री प्रियदर्शना के मध्य मतभेद हो गया। उसी मतभेद के कारण राजा अपनी पुत्री पर कुपित हो गया और उसने उसका विवाह एक ऐसे युवक से कर दिया, जो कई वर्षों से रुग्ण था और चल-फिर भी नहीं सकता था। राजा ने अपनी दूसरी पुत्री कनकमंजरी का विवाह एक राजकुमार से किया।
प्रियदर्शना ने इसे अपने पूर्वजन्मों के फल के रूप में देखा। वह विदुषी और धर्मश्रद्धा-सम्पन्न थी। वह जानती थी कि दुष्कर्म यदि दुष्फल देते हैं तो सत्कर्मों से दुष्कर्मों का निवारण भी किया जा सकता है। उसने नवकार महामंत्र और आयंबिल तप की आराधना शुरू कर दी। साथ ही उसने पति की शुश्रूषा को भी अपना जीवन-व्रत बनाया। धर्माराधना और सेवाराधना से प्रियदर्शना के अपुण्य नष्ट होने लगे। शनैःशनैः उसका पति पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया। स्वस्थ होने पर उसके पति ने अपना परिचय प्रियदर्शना को दिया। वह एक राजकुमार था और उसका नाम शूरसेन था। पुण्योदय से उन्हें अपार धन की प्राप्ति भी हो गई । प्रियदर्शना के कहने पर शूरसेन ने वसन्तपुर में रहने का कार्यक्रम बनाया। भव्य भवन बनाकर वे दोनों वसंतपुर में रहने लगे। एक अवसर पर शूरसेन ने राजा के प्राणों की रक्षा की तो राजा ने प्रसन्न होकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। राजा को जब यह ज्ञात हुआ कि शूरसेन उसका जामाता है तो उसके हर्ष का पार न रहा। शूरसेन पहले वसंतपुर का राजा बना और बाद में उसने अपने खोए हुए राज्य को भी प्राप्त किया। सुदीर्घ काल तक शूरसेन और प्रियदर्शना राजसुख भोगते रहे। जीवन के उत्तर पक्ष में दोनों ने दीक्षा धारण की और सद्गति का अधिकार प्राप्त किया। (ख) प्रियदर्शना
तीर्थंकर महावीर की संसारपक्षीय पुत्री, क्षत्रियकुमार जमाली की पत्नी। संयम स्वीकार कर उसने आत्मकल्याण किया। (देखिए-जमाली) प्रियदर्शी
एक अबोला राजकुमार, जिसे जन्म लेते ही जातिस्मरण ज्ञान हो गया था, उसी के कारण उसने मौन धारण कर लिया था, क्योंकि बोलने के दुष्परिणाम के कारण ही उसे जननी-जठर की यात्रा करनी पड़ी थी। जन्मजात मौनावलम्बी उस कुमार का परिचय निम्नोक्त है -
प्रियदर्शी पूर्वभव में एक मुनि था। एक बार जब वह महाराज अरिमर्दन के महल में भिक्षा के लिए गया तो उसने महारानी धारिणी को साश्रु देखा। युवा मुनि का हृदय करुणार्द्र हो गया। उसने महारानी के आंसओं का कारण पछा। प्रौढा महारानी ने बताया कि अपत्रवती होना ही उसका कष्ट है। करुणाई मनि ने सहज स्वभाव से महारानी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। उपाश्रय पहुंचने पर अतिचारों की आलोचना करते हुए मुनि ने रानी को दिए आशीर्वाद की बात अपने गुरु के समक्ष कही। सुनकर गुरु गंभीर हो गए और बोले, वत्स! वैसा आशीर्वाद देकर तूने महान भूल की है, क्योंकि रानी के भाग्य में संतान का योग नहीं ...356 .
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