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प्रियंकर के जन्म के कुछ वर्ष पूर्व सेठ दुर्दैववश अपनी समस्त सम्पत्ति गंवा बैठा। नगर का परित्याग कर सेठ-सेठानी एक गांव में रहने लगे। वहां सेठानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र जब वर्ष-भर का हुआ तो रुग्ण हो गया। औषधोपचार के अतिरिक्त सेठ पूरा-पूरा दिन रुग्ण पुत्र को नवकार मंत्र सुनाता था। पुत्र का निधन हो गया और वह नवकार मंत्र के प्रभाव से धरणेन्द्र परिवार का देव बना। कालान्तर में प्रियश्री ने एक अन्य पुत्र को जन्म दिया। सेठ-सेठानी के धर्म प्रभाव से एक देव उपस्थित हुआ और उसने स्पष्ट किया कि उनका पुत्र अतिशय पुण्यशाली है और पन्द्रह वर्ष की अवस्था में वह अशोकपुर नगर का राजा बनेगा। साथ ही देव ने अपना परिचय प्रदान किया कि वह उन्हीं का पुत्र है और मरकर प्रियंकर नामक देव बना है। देव ने यह भी कहा कि वे अपने पुत्र का नाम भी प्रियंकर रखें।
सेठ-सेठानी पुत्र का भविष्य जानकर अति प्रसन्न हुए। वे नगर में लौट आए और उनके पुण्य पुनः खिलने लगे। अल्प समय में ही वे नगर के समृद्ध श्रेष्ठी बन गए। प्रियंकर भी शिक्षा पूर्ण कर घर लौटा। प्रियंकर की धर्म-श्रद्धा अखण्ड और अगाध थी। एक मुनि ने उसे उपसर्गहर स्तोत्र प्रदान कर कहा कि वह उक्त मंत्र का प्रतिदिन जप करे, उससे वह आत्मकल्याण के साथ-साथ जनकल्याण भी कर सकेगा। प्रियंकर ने उपसर्गहर स्तोत्र के पाठ से अनेक लोगों के उपसर्गों का हरण किया। अपनी परोपकार-वृत्ति, चारित्रनिष्ठा
और धार्मिकता के कारण वह जन-जन की आंखों का तारा बन गया। कई कन्याओं से उसका पाणिग्रहण भी हुआ। वह नगरनरेश का विशेष प्रियपात्र बन गया था।
राजा को बहुत पहले ही ज्योतिष-विदों ने बताया था कि उसके तीनों पुत्रों में से कोई भी उसका उत्तराधिकारी नहीं बन पाएगा। उसका दिव्य हार जिस व्यक्ति से प्राप्त होगा, वही उसके राज्य का उत्तराधिकारी होगा और सुयोग्य शासक सिद्ध होगा। .
कालान्तर में राजा का वह दिव्य हार प्रियंकर के उष्णीश से प्रकट हुआ। आखिर प्रियंकर ही अशोकपुर नगर का राजा बना। वह अपने युग का एक महान प्रतापी नरेश सिद्ध हुआ। उसके राज्य में जीव वध पूर्णतः निषेध था। सुदीर्घ काल तक प्रियंकर ने राज्य किया। अन्तिम वय में उसने चारित्र धर्म का पालन कर देवलोक प्राप्त किया। महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वह सिद्ध होगा। प्रियंगला
__ विहरमान तीर्थंकर श्री युगमंधर स्वामी ने गृहवास में प्रियंगला नामक राजकुमारी से विवाह किया था। (दखिए-युगमंधर स्वामी) प्रियग्रंथ
____ आर्य सुप्रतिबुद्ध के शिष्य और आर्य इन्द्र दिन्न के गुरु-भ्राता, अनेक विद्याओं और मन्त्रों के ज्ञाता मुनिराज। पर मन्त्रविद्या का प्रयोग वे धर्म प्रभावना और जीव रक्षा के हित ही करते थे, आत्मख्याति और लोकरंजन के लिए नहीं।
एक बार मुनिवर प्रियग्रंथ हर्षपुर नगर पधारे। वहां यज्ञ में एक बकरे की बलि दी जा रही थी। धर्म के नाम पर हिंसा के प्रोत्साहन को देखकर आर्य प्रियग्रंथ ने एक उपक्रम किया। उन्होंने श्रावकों को मन्त्रित चूर्ण दिया और निर्देश दिया कि उस चूर्ण को बलि के लिए लाए गए बकरे पर डाला जाए। वैसा ही किया गया। मन्त्र-प्रभाव से बकरा मानव-भाषा में बोलने लगा। बकरे ने यज्ञ में होने वाली हिंसा को घोर पाप का कारण बताया तथा जिनधर्म की शरण को परम आत्मलाभ कहा। बकरे का मानव-भाषा में बोलना जनता ...जैन चरित्र कोश ...
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