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अपने संकल्प के अनुरूप नागदत्त ने प्रव्रज्या धारण कर ली। महाराज धर्मपाल ने संसार को मायाजाल मानकर त्याग दिया और वे भी नागदत्त के साथ ही प्रव्रजित हो गए। निरतिचार संयम की आराधना द्वारा दोनों परमपद के अधिकारी बने।
-बृहत्कथा कोष, भाग 1, (हरिषेण आचार्य) (ख) नागदत्त ___ नागदत्त अपने पूर्वभव में समुद्रदत्त नामक श्रेष्ठी था, जो वसन्तपुर नगर का रहने वाला था। एक अन्य श्रेष्ठी वसुदत्त उसका घनिष्ठ मित्र था। दोनों मित्रों ने एक बार वज्रगुप्त नामक मुनि से श्रावक धर्म अंगीकार किया। कालक्रम से दोनों मित्र आयुष्य पूर्ण कर देवगति में गए। वहां पर भी उन दोनों के मध्य प्रगाढ़ मैत्री भाव बना रहा। वहां रहते हुए ही उन दोनों ने निश्चय किया कि उनमें से जो पहले आयुष्य पूर्ण कर मनुष्य भव में जाएगा, उसे दूसरा प्रतिबोधित करेगा। फलतः समुद्रदत्त का जीव पहले आयुष्य पूर्ण कर धरानिवास नगर के श्रेष्ठी सागरदत्त के पत्र रूप में उत्पन्न हआ। वहां पर उसका नाम नागदत्त रखा गया। यौवन वय में नागदत्त को विशेष रूप से संगीत से अनुराग हो गया। उसने एक मित्र-मण्डली बनाई और उसके साथ वह संगीत में निमग्न रहने लगा । उसका एक अन्य शौक था-नागों से खेलना। नागों को वश में करने की विद्या में उसे महारथ प्राप्त थी।
उसके मित्र वसुदत्त के जीव देव ने वचनानुसार उसे प्रतिबोध देने के कई प्रयास किए, परन्तु सभी सुखद प्रयास विफल रहे। आखिर देव ने इस विचार से कि दुख में ही व्यक्ति को धर्म का स्मरण होता है, एक कठोर उपाय से नागदत्त को प्रतिबोध दिया। नागदत्त अन्ततः प्रतिबोध को प्राप्त हो गया। उसने अपने मित्र वसुदत्त के जीव देव को धन्यवाद दिया और प्रत्येक-बुद्ध मुनि बनकर एकाकी साधना में निमग्न हो गया। उत्कृष्ट चारित्र की आराधना से केवलज्ञान प्राप्त कर वह मोक्ष में गया। (ग) नागदत्त (गाथापति)
मणिपुर नगर का एक सद्गृहस्थ। एक बार उसने उत्कृष्ट भावों से इन्द्रदत्त नामक मासोपवासी अणगार को आहार दान दिया। उसने उस दान के फलस्वरूप उत्कृष्ट पुण्य का अर्जन किया। वहां से आयुष्य पूर्ण कर वह महापुर नरेश बल के पुत्र (महाबल) रूप में जन्मा। महाबल के भव में उसने भगवान महावीर के चरणों में आर्हती प्रव्रज्या अंगीकार कर सिद्ध पद पाया।
-विपाकसूत्र द्वि श्रु. अ.7 (घ) नागदत्त (सेठ) ___उज्जयिनी नगरी का एक धनी, मानी, प्रतिष्ठित और महत्वाकांक्षी सेठ। उसके पास अब्जों की संपत्ति थी परन्तु उसका उपयोग दान-पुण्य और परोपकार में कम तथा भोग-विलास और प्रदर्शन में ही मुख्यतया होता था। सेठ ने नगर के मध्य अपार धन व्यय कर एक सप्तमंजिला भवन बनवाया। भवन बनकर तैयार हो गया तो सेठ ने दूर-देशों के कुशल चित्रकार बुलवाए। सेठ ने चित्रकारों को निर्देश दिया-भले कितना ही द्रव्य व्यय हो जाए, पर ऐसी चित्रकारी करो कि सात-पीढ़ियों के बाद भी चित्र नए प्रतीत हों और लोग मुझे स्मरण रखें। सेठ ऐसा कह ही रहा था कि उधर से गुजरते हुए एक मुनि के मुख पर मुस्कान तैर गई। सेठ चौंका। उसने सोचा, मुनि की मुस्कान में रहस्य है, संध्या समय मुनि के पास जाकर उनकी मुस्कान का रहस्य ज्ञात करूंगा।
सेठ अपने घर गया और भोजन करने लगा। सेठ का पुत्र मातृगोद से उतरकर पितृगोद में आ बैठा। सेठ की गोद में आते ही उसने लघुशंका कर दी। मूत्र के छींटे सेठ की थाली में रहे हुए भोजन पर भी गिरे। ...312 .
-. जैन चरित्र कोश ...