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धारण कर लिए और साथ ही अभिग्रह कर लिया कि वह बेले- बेले का तप करेगा तथा पारणे के दिन भी लोगों द्वारा स्नान किए हुए अचित्त जल से ही पारणा करेगा। इस प्रकार कठिनतम मर्यादाओं में अपने जीवन को बांधकर वह साधना करने लगा ।
एक दिन बावड़ी के तट पर कुछ लोग भगवान महावीर के राजगृह पदार्पण की चर्चा कर रहे थे, जिसे मेंढक ने सुना तो वह हर्षाप्लावित बन भगवान के दर्शनों के लिए चल दिया। उधर राजा श्रेणिक भी घोड़े पर सवार होकर भगवान के दर्शनों के लिए जा रहा था। उस घोड़े के पैर के नीचे आ जाने से वह मेंढ़क मृतप्रायः हो गया। उसी अवस्था में उसने महावीर को वहीं से वन्दन किया और अनशन ग्रहण कर प्राण छोड़ दिए । वह मरकर प्रथम देवलोक में दर्दुर नामक देवता बना। वहां से च्यव कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा ।
नंदन मणिकार का यह पूरा परिचय स्वयं तीर्थंकर महावीर ने अपने शिष्य गौतम स्वामी के एक प्रश्न के उत्तर में दिया था । -ज्ञाताधर्मकथांग, 13
नंदन मुनि
नंदन छत्रा नगरी के राजा जितशत्रु और उनकी रानी भद्रा के पुत्र थे । यौवनवय में वे राजा बने । उनका कुल आयुष्य चौरासी लाख वर्ष का था । तिरासी लाख वर्ष की अवस्था में नंदन ने मुनि दीक्षा ग्रहण की और एक-एक मास के उपवास के साथ कठोर तप का जीवनपर्यन्त आराधन किया। उन्होंने बीस उत्कृष्ट स्थानों की आराधना के साथ तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। दो मास के अनशन के साथ देहोत्सर्ग कर वे प्राणत देवलोक में देव बने । देवायुष्य पूर्ण कर वे महारानी त्रिशला के गर्भ से चौबीसवें जिनेश्वर वर्धमान के रूप में पैदा हुए 'और जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बने । आज भी वर्धमान महावीर का धर्मशासन प्रवहमान है और आगत साढ़े अठारह हजार वर्षों तक प्रवहमान रहेगा।
नंदयंती
जगत्वन्द्या महासती दमयंती के तुल्य ही एक महासती । उसकी परिचय-गाथा दमयंती से पर्याप्त समानता लिये हुए है । वह श्रीपोतनपुर नगर के नगर सेठ सागरपोत की पुत्रवधू और समुद्रदत्त की पत्नी थी । संयोग से एक बार जब समुद्रदत्त व्यापार के लिए विदेश रवाना हुआ तो उस समय नंदयंती रजस्वला थी। दो दिन की यात्रा के पश्चात् समुद्रदत्त का सार्थ एक जंगल में पहुंचा। समुद्रदत्त पत्नी से मिलने को उत्सुक बन गया। अपने विश्वस्त मित्र को सूचित कर वह एक तीव्रगामी अश्व पर आरूढ़ होकर रात्रि में अपने भवन पर पहुंचा। अपने द्वारपाल को उसने अपने आगमन की प्रतीक स्वरूप मुद्रिका प्रदान की और प्रहर भर तक पत्नी से मधुरालाप कर वह अपने निश्चित स्थान पर लौट गया ।
तीन माह के पश्चात् नंदयंती के गर्भ-लक्षण प्रकट होने लगे। सास जानती थी कि जिस समय उसके पुत्र ने विदेश के लिए प्रस्थान किया, उस समय नंदयंती रजस्वला थी । पुत्रवधू में गर्भ के लक्षण देखकर उसने उसे दुश्चरित्रा घोषित कर दिया। संयोग से उस समय नंदयंती का द्वारपाल उसके पीहर गया हुआ था। सास- श्वसुर ने नंदयंती से बिना स्पष्टीकरण मांगे उसे जंगल में छोड़ दिया। नंदयंती कई दिनों तक एकाकी जंगल में भटकती रही। भटकते-भटकते वह भड़ौच नगर के निकट जंगल में पहुंची। भड़ौच नरेश पद्मक वन-भ्रमण को उधर आया तो वह नंदयंती को भगिनी का मान देकर अपने साथ ले गया । राजा ने नंदयंती को सुखद आवास दिया और उसे दानशाला का दायित्व अर्पित कर दिया। नंदयंती दान देते हुए जैन चरित्र कोश +
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