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ग्वाला अपनी गायों को जंगल में चराते हुए श्लोक के उन तीन पदों को पुनः पुनः दोहरा रहा था। उधर से संयोग से धर्मरुचि मुनिआ गए। अपने जीवन से सम्बन्धित त्रिपद श्लोक को सुनकर उन्होंने चतुष्पद की पूर्ति कर दी। ग्वाला राजा के पास दौड़कर गया और पूरी घटना सच-सच कह दी। राजा मुनि के चरणों में पहुंचा और पूर्वजन्मों के वैर का पश्चात्ताप / प्रायश्चित्त आदि से प्रक्षालन कर अपने चित्त को विशुद्ध किया । मुनि ने भी प्रतिक्रमण / आलोचनादि से अपने अंतःकरण को विशुद्ध बनाया। राजा ने श्रावक धर्म अंगीकार किया और स्वच्छ व सदाचारपूर्ण जीवन जीकर सद्गति को उपलब्ध हुआ ।
- धर्मोपदेश माला
धर्मवीर्य अणगार
एक अणगार, जो निरन्तर मासखमण का तप किया करते थे । (देखिए - महाचन्द अणगार) - विपाकसूत्र द्वि श्रु., अ. 9
धर्मसिंह अणगार
निरन्तर एक-एक मास का उपवास करने वाले एक प्राचीन मुनि । (देखिए - भद्रनंदी कुमार) धर्मसिंह (आचार्य)
स्थानकवासी परम्परा के एक क्रियोद्धारक आचार्य । आचार्य धर्मसिंह जी का जन्म सौराष्ट्र के जामनगर में हुआ। उनके पिता का नाम जिनदास एवं माता का नाम शिवादेवी था । वे श्रीमाली गोत्र के थे । उन्होंने देवजी यति के पास दीक्षा धारण की और आगमों का गहन गंभीर अध्ययन किया। उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी। एक दिन में वे एक सहस्र श्लोक कण्ठस्थ कर लेते थे । वे अवधानकार भी थे। उनकी एक अन्य विलक्षणता यह थी कि वे दो हाथों और दो पैरों में चार कलमें पकड़कर एक साथ लिख सकते थे ।
मुनिवर धर्मसिंह जी एक चिन्तनशील पुरुष थे। उन्होंने आगम में वर्णित साध्वाचार और यति संघ के आचार पर सूक्ष्म चिन्तन किया । यतिवर्ग में फैले शिथिलाचार से उनका मन निर्वेद से भर गया। उन्होंने क्रियोद्धार करने का संकल्प किया। अपने गुरु देवजी यति से उसके लिए आज्ञा मांगी। देवजी यति ने कहा, शिष्य ! मैं स्वयं कठोर आचार के पालन में असमर्थ हूं। तुम कठोर आचार का पालन कर सकते हो, पर मेरा आशीर्वाद तुम्हें तभी मिलेगा, जब तुम दरियापीर नामक यक्षालय में एक रात्रि व्यतीत करने की हिम्मत दिखाओ। गुरु के इस आदेश को धर्मसिंह जी ने पूरा किया और दरियापीर यक्ष को सम्यक् दृष्टि बना दिया। देवजी यति ने प्रसन्न चित्त से धर्मसिंह जी को क्रियोद्धार की अनुमति प्रदान की ।
धर्मसिंह जी ने लोंकाशाह के क्रिया - क्रांति पथ पर चरण बढ़ाए। अपनी यात्रा में उनका प्रथम पड़ाव अहमदाबाद के दरियापुरी द्वार पर हुआ, जहां उन्होंने अपनी प्रथम देशना दी। उसी कारण से उनका सम्प्रदाय "दरियापुरी” नाम से जाना गया। यह घटना वीर.नि. 2162 (वि. 1692) की है ।
आचार्य धर्मसिंह जी एक विद्वान मुनिराज थे। उनका आगम ज्ञान अगाध था। उन्होंने अपने जीवनकाल में 27 आगमों पर टब्बे लिखे, जो 'दरियापुरी टब्बे' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये टब्बे आगमों के गूढ़ार्थ को समझने के लिए विशेष उपयोगी हैं।
आचार्य धर्मसिंह जी का स्वर्गवास वी. नि. 2198 (वि. 1728 ) में अनशन की अवस्था में हुआ।
धर्मसेन
जयानगरी के महाराज जयसेन का पुत्र । धर्मसेन के दो अग्रज सहोदर थे - चन्द्रसेन और मित्रसेन । ••• जैन चरित्र कोश +
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