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यह परिवार भटकता हुआ संयोगवश राजगृह पहुंचा। इस बार भी धन्य ने इन्हें पूरे प्यार से रख लिया। पर दुष्ट अपनी दुष्टता भला कहां छोड़ने वाले थे! धन्य को राजगृह नगरी भी छोड़नी पड़ी। वे कौशाम्बी नगरी पहुंचे और वहां रत्नों की सफल परीक्षा कर उन्होंने शतानीक राजा का मन मोह लिया। राजा ने धन्य जी को अपनी पुत्री सौभाग्यमंजरी तो दी ही, साथ ही पांच सौ ग्रामों की जागीर भी दी । वहां पर धनपुर नगर बसाकर धन्यजी रहने लगे। उनका परिवार यहां पर भी दीन-दरिद्रावस्था में आ पहुंचा। धन्य जी ने सारी संपत्ति और जागीर अपने भाइयों को दे दी और पुनः राजगृह में आकर रहने लगे। चार अन्य युवतियों के उनसे विवाह हुए। ___समृद्धि के शिखर पर विहरण करते हुए धन्य जी एक दिन स्नान कर रहे थे । उनकी आठों पलिया उन्हें स्नान करा रही थीं। सहसा उन्होंने सुभद्रा की आंखों में आंसू देखे। कारण पूछने पर सुभद्रा ने बताया कि उसका इकलौता भाई शालिभद्र अपनी बत्तीस पत्नियों को एक-एक दिन में एक-एक को समझा व त्यागकर तेंतीसवें दिन दीक्षा ले लेगा। इससे उसका पीहर तो सूना ही हो जाएगा।
धन्य जी ने इस बात को हास्य का पुट देते हुए कह दिया कि उसका भाई तो कायर है। उसे संयम लेना है तो बत्तीस दिन की प्रतीक्षा कैसी? वह तो ढोंग कर रहा है। सुभद्रा इस हास्य को सह न पाई। उसने धन्य जी को कायर कहते हुए व्यंग्य किया और कहा कि कायर उसका भाई नहीं, वे स्वयं हैं, जो आठ-आठ पलियों से चिपके हुए हैं। सुभद्रा की बात ने धन्य जी के आत्म पुरुषार्थ को झिंझोड़कर जगा डाला। वे अर्धस्नान की अवस्था में ही खड़े हो गए और आठों पत्नियों को बहिन का दर्जा देकर शालिभद्र को साथ लेकर भगवान के पास जाकर दीक्षित हो गए।
धन्य जी ने प्रकृष्ट तप और निरतिचार संयम की परिपालना कर क्षपक श्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त किया और वे मोक्ष में जा विराजे।
___ -स्थानांग वृत्ति, 10 (क) धन्य सार्थवाह ___ धन्य चम्पानगरी का रहने वाला एक धनी सार्थवाह था। उसके पास विपुल धन-धान्यादि सम्पत्ति और अनेक सेवक थे। देश और विदेशों में उसका व्यवसाय फैला हुआ था।
एक बार धन्य सार्थवाह ने व्यापार के लिए अहिच्छत्रा नगरी जाने का संकल्प किया। उसने नगर में घोषणा कराई कि जो भी व्यापारी अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहता है, वह उसके सार्थ के साथ जा सकता है। ऐसे किसी भी व्यक्ति के मार्गव्यय एवं सुख-दुखादि का पूरा विचार वह स्वयं निर्वहन करेगा। धन्य सार्थवाह की उक्त घोषणा को सुनकर कई व्यापारी उसके सार्थ के साथ हो लिए। सुनिश्चित समय पर धन्य के नेतृत्व में विशाल सार्थ ने अहिच्छत्रा नगरी के लिए प्रस्थान किया। कुछ दिनों की यात्रा के पश्चात् सार्थ चंपानगरी की सीमा पर पहुंच गया। तब धन्य सार्थवाह ने अपने सेवकों को बुलाकर कहा, आप लोग सार्थ के प्रत्येक व्यक्ति को जाकर सूचित करो कि यहां से आगे एक विशाल और विकट अटवी का प्रारंभ होगा। उस अटवी में साधारणतः लोगों का आवागमन नहीं होता है। अटवी में जहां नाना प्रकार के वक्ष हैं, वहीं वहां पर नन्दीफल नामक वृक्ष भी हैं। वे वृक्ष और उनके फल देखने में सुंदर और खाने में मधुर हैं, पर वस्तुतः वे विषफल हैं। उन्हें खाते ही व्यक्ति प्राणहीन हो जाता है। अतः आत्म-कुशलता के इच्छुक व्यक्तियों को उन वृक्षों की छाया मात्र से भी दूर रहना चाहिए।
धन्य सार्थवाह ने अपने सेवकों द्वारा उक्त घोषणा पूरे सार्थ में दो-तीन बार करवा दी। ... 284
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