________________
रक्त और मांस सूख गया। वे हड्डियों का ढांचा मात्र शेष रह गए। बोलना तो दूर, बोलने के विचार मात्र से उन्हें कष्ट होता था।
उसी अवधि में भगवान महावीर राजगृह पधारे तो महाराज श्रेणिक प्रभु के दर्शनार्थ आया। वार्ता के संदर्भ में उसने भगवान से उनके संघ में सर्वश्रेष्ठ करणी करने वाले मुनि का नाम जानने की जिज्ञासा रखी। भगवान ने धन्य अणगार को सर्वोत्कृष्ट करणी करने वाला मुनि बताया और उनके उत्कृष्ट तप की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
भगवान की बात सुनकर श्रेणिक धन्य अणगार के पास पहुंचा। उसने मुनि को भगवान द्वारा की गई उनकी प्रशंसा के बारे में बताया और श्रद्धावनत हो पुनः पुनः उन्हें वन्दन करने लगा।
देह को भारस्वरूप जानकर धन्ना अणगार प्रभु की आज्ञा लेकर विपुलगिरि पर्वत पर गए और संलेखना के साथ शरीर त्याग कर सर्वार्थसिद्ध विमान के अधिकारी बने। वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाएंगे।
मात्र नौ मास की साधना से धन्ना अणगार सिद्धि के द्वार पर पहुंच गए। -अनुत्तरोपपातिक सूत्र धन्य जी
एक परमपुण्यशाली पुरुषरत्न। वह महान बुद्धिमान, अति सज्जन और स्वाभिमान का धनी युवक था। उसके जन्म लेते ही उसकी पुण्य प्रकृति खिल उठी थी। प्रतिष्ठानपुर निवासी धनसार सेठ उसका पिता था। धनदत्त, धनदेव और धनचन्द उसके तीन बड़े भाई थे, जो ईर्ष्यालु, झगड़ालु और अपुण्यात्मा थे। इन तीनों के क्रमशः जन्म लेने से सेठ धनसार का धन, ऐश्वर्य और सम्मान खो गया था। पर धन्य जी के जन्म लेते ही जब नाल दबाने के लिए जमीन खोदी गई तो वहां से मोहरों से भरे हुए घड़े निकले, जो धन्य जी के पुण्य के प्रतीक थे। पिता की समृद्धि शीघ्र ही लौट आई। सम्मान भी बढ़ा। ऐसे में सेठ का अनुराग धन्य जी के प्रति बढ़ना स्वाभाविक था। इससे शेष तीनों भाई धन्य जी से ईर्ष्या करने लगे और अन्ततः उनकी ईर्ष्या इतनी प्रबल बन गई कि वे धन्य को मारने की योजनाएं बनाने लगे।
__ सहोदरों के सुख के लिए एक रात्रि में धन्य घर छोड़कर निकल गए और उज्जयिनी नगरी पहुंचकर वहां अपने बुद्धिबल से महाराज चण्डप्रद्योत के मंत्री बन गए। धन्य के चले जाने से धनसार पुनः कंगाल हो गया। अपने पुत्रों और पुत्रवधुओं के साथ भटकता हुआ संयोग से उज्जयिनी नगरी में ही पहुंच गया। वहां इनकी धन्य जी से भेंट हो गई। धन्य जी ने इनको पूरे सम्मान और स्नेह से अपने साथ रख लिया। पर ईर्ष्यालु भाइयों की ईर्ष्या यहां भी समाप्त न हुई । वे धन्य जी से हिस्सा मांगने लगे। धन्य जी पुनः एक रात्रि में घर से निकल गए। मार्ग में उनके शील से चमत्कृत गंगादेवी ने उन्हें चिन्तामणि रत्न प्रदान किया। उसे लेकर वे राजगृह पहुंचे। सेठ कुसुमपाल के सूखे बगीचे में उन्होंने विश्राम किया। उनके पुण्य प्रभाव से बगीचा हरा-भरा हो गया। प्रसन्न होकर सेठ ने अपनी पुत्री कुसुमश्री का विवाह धन्य जी से कर दिया। उन्हीं दिनों राजा श्रेणिक का सिंचानक हाथी उन्मत्त हो गया और बाजारों मे उत्पात मचाने लगा। धन्य जी ने सिंचानक हाथी को वश में कर लिया । राजा ने खुश होकर धन्य जी का पाणिग्रहण अपनी पुत्री सोमश्री से कर दिया। कुछ ही दिन बाद धन्य जी ने एक काने ठग से गोभद्र सेठ की प्रतिष्ठा और धन की रक्षा की तो सेठ ने गद्गद होकर उनसे अपनी इकलौती पुत्री सुभद्रा का विवाह कर दिया। तीन पत्नियों के साथ धन्यजी सुख से समय बिता रहे थे। उधर राजा चण्डप्रद्योत ने धनसार और उसके पुत्रों को इसलिए अपने नगर से निकाल दिया कि उनके कारण उसे एक बुद्धिमान मंत्री खोना पड़ा। .. जैन चरित्र कोश ..
-- 283 ...