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और प्रखर बुद्धि के कारण वे अपने समय के एक समर्थ विद्वान बने। अपने जीवन काल में उन्होंने कई उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की। जैन परम्परा के वे आदि वैयाकरण माने जाते हैं। उनका जैनेन्द्र व्याकरण विद्वद् समाज में अतीव सम्माननीय है। उन्होंने पाणिनी के व्याकरण पर शब्दावतार न्यास की रचना भी की थी। ____ आचार्य देवनंदी अपने समय के महान प्रभावशाली पुरुष थे। गंग वंश के राजा पर उनका विशेष प्रभाव था। गंग नरेश आचार्य श्री का भक्त था और उनके धर्म प्रचार में अपना पूरा सहयोग देता था।
आचार्य देवनंदी वैद्यक विद्या के भी जानकार थे। रस-सिद्धि की विद्या में भी वे निष्णात थे। साधारण वनस्पति से भी वे ऐसा रस पर्याप्त मात्रा में तैयार कर सकते थे, जिससे इच्छित परिमाण में स्वर्ण सम्पादित किया जा सके। आचार्य देवनन्दी की महिमा उनके ज्ञान और ध्यान के कारण विशेष है। उन्हें 'पूज्यपाद' उपनाम से भी जाना जाता है। उनका समय वी.नि. की ग्यारहवीं शती का पूर्वार्ध अनुमानित है।
-श्रवणबेलगोल शिलालेख (ख) देवनंदी 'पूज्यपाद' (आचार्य)
विक्रम की छठी शताब्दी के एक विद्वान् दिगम्बर आचार्य। आप जन्मना ब्राह्मण थे। आपके पिता का नाम माधवभट्ट और माता का नाम श्रीदेवी था। आप दक्षिण के निवासी थे।
आपके तीन नाम प्रचलित हैं-1. देवनंदी, 2. जिनेंद्रबुद्धि, 3. पूज्यपाद।
आप नन्दी संघ के आचार्य थे। आप बहुश्रुत और साहित्य निर्माता आचार्य थे। आपने कई उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की। समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण, शब्दावतार आदि आपकी मौलिक रचनाएं हैं। 'सर्वार्थ सिद्धि' नाम से आपने तत्वार्थसूत्र पर टीका भी लिखी।
आप एक तेजस्वी और साधना सम्पन्न आचार्य थे। कहते हैं कि एक बार आपकी नेत्र ज्योति चली गई थी। आपने शान्त्याष्टक स्तोत्र का जप किया, जिससे आपकी ज्योति पुनः लौट आई। एक अन्य उल्लेख के अनुसार आप महाविदेह क्षेत्र में श्री सीमन्धर स्वामी के दर्शन हेतु भी गए थे।
तत्कालीन नरेश भी आप से प्रभावित थे। युवराज दुर्विनीत के आप शिक्षा गुरु थे। देव ब्राह्मण
भगवान महावीर के अष्टम् गणधर अकंपित के जनक। देवभद्र
एक ब्राह्मण पुत्र, जिसने श्रमण धर्म का पालन कर मोक्ष-पद प्राप्त किया था। (देखिए-यशोभद्र) देवप्रसाद
कांपिल्यपुर का परम प्रतापी और प्रजावत्सल नरेश । उसका प्रारंभिक जीवन पर्याप्त अवरोह-आरोहपूर्ण रहा। जब वह गर्भ में ही था तो उसके पिता महाराज जयवर्म पर शूरसेन नामक क्षत्रिय ने आक्रमण कर दिया। युद्ध में जयवर्म मारा गया। जयवर्म की रानी-जयावली ने उसी रात्रि में देवप्रसाद को जन्म दिया। वह अपने नवजात शिशु को लेकर सुरंग मार्ग से चली गई। शत्रु से पुत्र की रक्षा के लिए उसने पुत्र को राजा जयवर्म की नामांकित मुद्रिका के साथ श्मशान में रख दिया। काम्पिल्यपुर के एक धर्मात्मा श्रेष्ठी भद्र ने राजशिशु को ग्रहण किया। उसका परिचय गुप्त रखकर भद्र सेठ ने राजकुमार को अपना पुत्र घोषित किया। राजकुमार श्रेष्ठी गृह में पल-बढ़कर युवा हुआ। श्रेष्ठी ने अपार धन व्यय कर देवप्रसाद को शिक्षित-दीक्षित ... जैन चरित्र कोश ...
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