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साथ लेकर वेनातट पहुंच गया। पुष्पक सेठ, मुनीम और लक्खी बंजारा भी कुष्ठग्रस्त होकर वेनातट नगर में आ गए। कर्मयोग से पांचों एकत्रित होकर चित्रसार के पास पहुंचे। चित्रसार की प्रार्थना पर तिलोकसुंदर ने उनका उपचार करने की स्वीकृति दे दी। सुनिश्चित समय पर तिलोकसुंदर उनके उपचार के लिए चित्रसार के निवास पर पहुंचा। तिलोकसुन्दर ने पांचों कुष्ठ रोगियों को अपने सामने बैठाया और कहा, कुष्ठ रोग कृत्कर्म के फलस्वरूप प्रकट होता है। मैं तुम्हारा उपचार इस शर्त पर करूंगा कि तुम सभी अपने-अपने कृत्कर्म का स्पष्टीकरण करोगे। आखिर मरते क्या न करते। सभी ने अपने दुष्कर्म स्वीकार कर लिए। उनके दुष्कर्मों की कथा सुनकर चित्रसार मूर्च्छित हो गया और चेतना लौटने पर अपनी पत्नी तिलोकसुंदरी को पुकार-पुकार कर विलाप करने लगा। तिलोकसुंदर ने चित्रसार को धैर्य बंधाया और कहा कि एक नारी को तिरस्कृत करने वाले ये पांच पुरुष दूर देश में एक ही अवस्था को प्राप्त होकर एकत्रित हो सकते हैं तो यह किंचित्मात्र भी असंभव नहीं है कि तिलोकसुंदरी भी आपको प्राप्त हो।
चित्रसार को आश्वस्त कर तिलोकसुंदर ने पांचों कुष्ठ रोगियों के कुष्ठ का उपचार कर दिया। पांचों ही स्वस्थ बनकर उसके चरणों पर गिर पड़े। तिलोकसुंदर ने पांचों को दूसरे कक्ष में भेज दिया और स्वयं भी एक कक्ष में चला गया। अपने मूल रूप को प्राप्त कर तिलोकसुंदरी पति के पास पहुंची। पति-पत्नी के हर्ष का पारावार न रहा । रहस्य से परिचित बनकर पांचों ने महासती से अपने-अपने कृत्यों के लिए क्षमा मांगी और श्रेष्ठ जीवन जीने का प्रण लिया । ___आखिर गुणसुंदरी का पाणिग्रहण चित्रसार से सम्पन्न हुआ। चित्रसार, तिलोकसुंदरी और गुणसन्दरी तीनों ने देव, गुरु और धर्म की आराधना करते हुए सुदीर्घ जीवन जीया और अंतिम अवस्था में चारित्र की आराधना करके सद्गति प्राप्त की। तिलोत्तमा
मोटपल्ली नगरी की राजकुमारी। (देखिए-उत्तम कुमार) तिष्यगुप्त (निन्हव)
जैन परम्परा में एक शब्द आता है, निन्हव। निन्हव उसे कहा जाता है, जो मुनि वेश में रहते हुए ही जैन दर्शन के किसी सिद्धान्त की अन्यथा प्ररूपणा करता है। तिष्यगुप्त एक निन्हव हुआ है। किसी समय जब वह आचार्य वसु के साथ राजगृह नगर के गुणशीलक उद्यान में ठहरा हुआ था तो चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु ने वाचना देते हुए भगवान महावीर के सिद्धान्त के अनुसार जीव के स्वरूप का कथन इस प्रकार किया-जीव न तो एक प्रदेश को कहा जाता है, न दो, तीन, चार और संख्यात प्रदेश वाले को जीव कहा जाता है, अखण्ड चेतन द्रव्य में एक प्रदेश कम को भी जीव नहीं कहा जाता है। असंख्यात प्रदेशी अखण्ड चेतन द्रव्य ही जीव कहलाता है। ' तिष्यगुप्त ने अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ ग्रहण करते हुए यही माना कि जीव का अन्तिम प्रदेश ही जीव है, और वह यही प्ररूपणा भी करने लगा। आचार्य ने उसे बहुत समझाया पर उसे समझ न आया। आखिर उसे संघ से बाहर कर दिया गया। इससे भी वह खिन्न न हुआ और अपने मत का प्रचार करते हुए एक बार वह आमलकल्पा नगरी में आया। वहां पर मित्रश्री नाम का एक जैन श्रावक रहता था। मुनि की प्ररूपणा सुनकर वह समझ गया कि वह जिनमत के विपरीत प्ररूपणा कर रहे हैं। मुनि को जिनमार्ग पर लाने के लिए उसने अपने ही ढंग का प्रयास किया। वह मुनि की भक्ति करता और नित्य प्रवचन सुनता। एक ... जैन चरित्र कोश ...
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