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कष्टों को तो गले लगा लिया पर अपने शील पर आंच नहीं आने दी । तिलोकसुंदरी सुदर्शनपुर नगर के धनी श्रेष्ठी पुष्पदत्त के कनिष्ठ पुत्र चित्रसार की अर्द्धांगिनी थी। जिन धर्म पर उसकी अगाध आस्था थी । सामायिक, संवर, पौषध उसके जीवन के अनिवार्य अंग थे । सागरदत्त चित्रसार का सहोदर (अग्रज ) था । दोनों भाइयों के मध्य राम-लक्ष्मण सा स्नेह-समर्पण भाव था। एक बार जब चित्रसार व्यापार के लिए वेनातट नगर गया हुआ था तो सागरदत्त की दृष्टि अनुजवधू तिलोकसुंदरी पर पड़ गई । तिलोकसुंदरी के रूप लावण्य को देखकर सागरदत्त कामान्ध बन गया। उसने एक दूती के द्वारा अपना प्रणय निवेदन तिलोकसुंदरी के पास भेजा । तिलोकसुंदरी का चण्डी रूप देखकर दूती दूतीकर्म भूल बैठी। सागरदत्त रात्रि में स्वयं अनुजवधू के गृहद्वार पर पहुंचा। तिलोकसुंदरी ने विभिन्न नीति- वचनों से सागरदत्त को सन्मार्ग पर लाने का यन किया। पर कामान्ध सागरदत्त नीति को भूल चुका था। अंततः तिलोकसुंदरी ने कठोर वचनों से सागरदत्त को तिरस्कृत कर दिया। सागरदत्त तिलोकसुंदरी को अपहरण की चेतावनी देकर लौट गया। मार्ग में उसे उसका मित्र नगररक्षक मिला। उसने नगररक्षक को अपने हृदय के कुत्सित भाव कहे और उससे उक्त कार्य में सहयोग की याचना की । सागरदत्त को विश्वस्त कर नगररक्षक तिलोकसुंदरी के द्वार पर पहुंचा । गवाक्ष से तिलोकसुंदरी को देखकर वह स्वयं उसके रूप का दीवाना बन गया। उसने मधुर और कठोर - दोनों तरह के वचनों का उपयोग कर तिलोकसुंदरी से द्वार खुलवाना चाहा। पर तिलोकसुंदरी सावधान थी। उसने कठोर फटकार से नगररक्षक को चौंका दिया । नगररक्षक ने भी उसे अपहरण की चेतावनी दी और अपने घर को लौट गया ।
तिलोकसुंदरी ने अपने शील को राहु-केतु से घिरा महसूस किया। उसने प्रभात होने से पूर्व ही सुदर्शनपुर नगर को छोड़ दिया । वह कई दिनों तक चलती रही और गहरे जंगल में पहुंच गई। वहां एक गिरि- गुहा में रहकर धर्माराधना करने लगी। उसे वहां पर चम्पानगरी का श्रमणोपासक व्यापारी श्रेष्ठी गुणपाल मिला, जो उसे पुत्री मानकर अपने घर ले आया । पर वहां भी तिलोकसुंदरी अधिक दिनों तक सुखपूर्वक नहीं रह पाई । सेठ के मुनीम की कुदृष्टि उसके रूप पर पड़ गई । असफल होने पर उसने तिलोकसुंदरी के कक्ष में मद्य-मांस रखवा कर उसे श्रेष्ठी - गृह से निकलवाने का षड्यंत्र रच दिया। सेठ को तिलोकसुंदरी पर पूर्ण विश्वास था। पर सेठानी का विश्वास चलित बन गया । एक सहस्र स्वर्णमुद्राएं तिलोकसुंदरी को देकर सेठ विदा किया।
तिलोकसुंदरी अपने सत्यशील पर सुदृढ़ थी। पर भिन्न-भिन्न रूपों में पुरुष उसे ठगने को उतावला बनता रहा। इसी क्रम में पुष्पक सेठ और लक्खी बंजारे ने तिलोकसुंदरी से विश्वासघात किया। अपने शील की रक्षा के लिए तिलोक सुंदरी को अथाह सागर में कूदना पड़ा। पर आयुष्य - बल शेष होने से वह तट पर
गई । पुण्य- अपुण्य के पृष्ठ उलटते-पलटते रहे। आखिर तिलोकसुंदरी के शुभ कर्मों का उदय हुआ । उसे रूपपरावर्तिनी, सर्वरोगहारिणी आदि अनेक जड़ी-बूटियां प्राप्त हो गईं । पुरुषवेश बनाकर और अपना नाम तिलोकसुन्दर रख कर तिलोकसुंदरी वेनातट नगर पहुंची। वह जानती थी कि उसका पति चित्रसार वेनातट नगर में ही व्यापार के लिए गया हुआ है। वेनातट नगर मे पहुंचकर तिलोकसुंदरी ने कुष्ठ रोग ग्रस्त राजा का उपचार किया। स्वस्थ होकर राजा ने अपनी पुत्री गुणसुंदरी का विवाह तिलोकसुंदर से कर दिया ।
उधर सागरदत्त और नगररक्षक के पाप का घड़ा फूट गया। दोनों की देह से कुष्ठ फूट पड़ा। राजा ने दोनों को अपने देश से निकाल दिया। ऐसे में सागरदत्त को अपने भाई की स्मृति आई । वह नगररक्षक को
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