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आपने कई ऐसे चित्र बनाए, जो लैंस विशेष से ही देखे जा सकते थे। ऐसा ही एक हाथी का चित्र बनाकर आपने जोधपुर नरेश मानसिंह को चमत्कृत कर दिया था।
राजस्थान और मध्यप्रदेश आपका विचरण क्षेत्र रहा। जोधपुर में आपने समय-समय पर वृद्ध-ग्लान मुनियों की सेवा के कारण कई वर्षावास किए।
वि.सं. 1913 में अनशनपूर्वक देह त्याग कर आप स्वर्गवासी हुए। जुट्ठल श्रावक
बाईसवें तीर्थंकर अरिहंत अरिष्टनेमि के समय का भद्दिलपुर वासी धनकुबेर गाथापति। वह अड़तालीस करोड़ स्वर्णमुद्राओं का स्वामी था। उसने सोलह करोड़ स्वर्णमुद्राएं व्यापार में, सोलह करोड़ स्वर्णमुद्राएं कृषि में तथा सोलह करोड़ स्वर्णमुद्राएं जमीन में सुरक्षित रख छोड़ी थीं। दस-दस हजार गायों के सोलह गोकुलों का वह स्वामी था। उसने बत्तीस श्रेष्ठी-कन्याओं से पाणिग्रहण किया था।
इतनी विशाल सम्पदा का स्वामी होते हुए भी जुट्ठल सादा जीवन यापन करता था। एक बार अरिहन्त अरिष्टनेमि का प्रवचन सुनकर उसकी भोग रुचि अत्यन्त सीमित हो गई। उसने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए। भात, चने की दाल और जल, ये तीन द्रव्य रखकर शेष द्रव्यों का जीवन-भर के लिए परित्याग कर दिया। आभूषणों में एक मुद्रिका अपने पास रखी। आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर, बेले-तेले आदि की तपस्या करता हुआ अपनी पौषधशाला में ही रहने लगा। ___ पति की भोगविमुखता उसकी पत्नियों को रुचिकर न लगी। उन्होंने उससे भोग प्रार्थना की, उसे अपनी
ओर आकर्षित करने के अनेक उपक्रम किए, पर जुट्ठल की प्रतिज्ञा की सुदृढ़ता के समक्ष उनकी एक न चली। जुट्ठल ने श्रावक की ग्यारह-प्रतिमाओं की आराधना प्रारंभ की। ग्यारहवीं प्रतिमा के उन्नीस दिन व्यतीत होने पर उसे अवधिज्ञान हो गया। अवधिज्ञान में श्रावक जी ने देखा कि उसे अग्नि का उपसर्ग होने वाला है, जिसमें उसका आयुष्य अशेष हो जाएगा। उसने पूर्ण समता भाव रखते हुए आमरण अनशन कर लिया। जुट्ठल की पलियों ने उसे अपने लिए निरुपयोगी पाकर एक दिन पौषधशाला में आग लगा दी। समता की साधना में लीन जुट्ठल देह त्याग कर देवलोक के अधिकारी बने। वहां का आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होंगे। ज्वालाप्रसाद सेठ
सेठ श्री ज्वालाप्रसाद जी विगत शती के पूर्वार्ध के एक यशस्वी दानवीर श्रावक थे। वे मूलतः महेंद्रगढ़ (हरियाणा) के थे। हैदराबाद में उन्होंने जवाहरात का व्यवसाय किया। प्रामाणिकता और सत्यनिष्ठा के बल पर उन्होंने व्यापार में काफी प्रगति की। जैन जगत के प्रतिष्ठित और समृद्ध श्रावकों में उनकी गणना हुई।
श्रीयुत् ज्वालाप्रसाद जी के जीवन का जो सर्वाधिक उत्कृष्ट गुण था, वह था उनका उदार और परोपकारी व्यक्तित्व। उनका अधिकांश धन जरूरतमंदों के लिए समर्पित होता था। साधर्मी सेवा के लिए वे सदैव प्रस्तुत रहते थे। धर्मप्रभावना के क्षेत्र में उन्होंने उत्कृष्ट कार्य किए। आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज ने प्रथम बार बत्तीस आगमों का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। आचार्य श्री की उस महान आगम साहित्य साधना को सर्वसुलभ बनाने के लिए श्रीयुत् ज्वालाप्रसाद जी ने संपूर्ण आगम वाङ्मय को प्रकाशित कराके भारतवर्ष के प्रमुख प्रमुख जैन स्थानकों में निःशुल्क वितरित कराया। अपने इस महनीय कार्य के रूप में सेठ ज्वालाप्रसाद जी लम्बे समय तक जैन जगत में अर्चित, वंदित और प्रशंसित रहेंगे। ... ...220
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