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प्रभात खिलते ही राजा ने पूर्व दिशा के राजपथ को फूलों और फलों से सजवा दिया। स्थान-स्थान पर दुग्धपात्र रखवा दिए। पूर्व दिशा से नागराज आया तो अपने स्वागत में सजे राजपथ को देखकर उसका वैरभाव शान्त हो गया । वस्तुतः वह नाग जाति का देव था । उसने अपने अवधिज्ञान में राजा के शुभ मनोभावों को पहचान लिया। राजा से मित्रता का सम्बन्ध स्थापित कर और उसे पशु-पक्षियों की भाषा समझने तथा मृतकों की भावी गति को देखने-जानने का वरदान देकर लौटने लगा । लौटते हुए नागराज राजा से कहा कि वह इन वरदानों का भेद किसी को न बताए । यदि इस रहस्य को वह किसी से कहेगा तो तत्क्षण उसकी मृत्यु हो जाएगी।
राजा तीन सारों को आजमा चुका था । चतुर्थ सार को आजमाने के लिए वह उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। राजा का साला उसके साथ ही रहता था। वह दंभी और व्यभिचारी था, पर अपने आपको धार्मिक और सच्चरित्र प्रदर्शित करता था। एक दिन अकस्मात् उसकी मृत्यु हो गई। राजा ने उपयोग लगाया और देखा कि उसका साला मरकर नरक में उत्पन्न हुआ है। राजा के मुख पर स्मित मुस्कान तैर गई, उसका चिन्तन था कि दुष्कर्म कितने ही छिप कर किए जाएं, अंततः उनका फल तो मनुष्य को मिलता ही है । उधर भाई की मृत्यु पर राजा को मुस्काते देख रानी के हृदय में शूल चुभ गया।
दूसरे ही दिन राजमहल के सफाईकर्मी की मृत्यु हो गई । राजा ने उपयोग लगाकर देखा तो पाया कि वह स्वर्ग में गया है। उसकी मृत्यु पर राजा की आंखों में आंसू तैर आए। यह देखकर रानी बिफर उठी । उसने त्रियाचरित्र फैलाते हुए राजा से उसके भाई की मृत्यु पर मुस्काने और सफाई कर्मी की मृत्यु पर आंसू बहाने का रहस्य पूछा। राजा ने रानी को अनेकविध समझाया कि वह उक्त रहस्य किसी को नहीं बता सकता, और अगर किसी को बताता है तो उसे स्वयं मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। राजा के इस कथन पर भी रानी ने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी और कहा, यदि यह रहस्य नहीं बताओगे तो मैं अपने प्राण दे दूंगी। राजा का अपनी रानी पर अत्यधिक अनुराग था । आखिर उसने उक्त रहस्य रानी को बताने का निश्चय कर लिया । जैसे ही वह उक्त रहस्य को रानी के समक्ष प्रकट करने लगा, तभी उसकी दृष्टि महल की मुंडेर पर बैठे हंस-हंसिनी युगल पर पड़ी। राजा नागराज के वरदानस्वरूप पक्षियों की भाषा समझता था। राजा ने सुनाहंसिनी हंस से आग्रह कर रही थी कि वह रानी के उत्तरीय में टंके मोती उसके लिए लाए । हंस के समझाने पर भी हंसिनी ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा और प्राण त्याग की धमकी दे डाली। तब हंस ने कहा, मैं राजा जैसा मूर्ख नहीं हूं, जो तुम्हारी धमकी के समक्ष नतमस्तक होकर अपने प्राणों को दांव पर लगाऊं !
हंस के वचन सुनकर राजा को एक झटका लगा। उसे अपनी भूल ज्ञात हो गई। साथ ही उसका मिथ्या मोह भी विदा हो गया। उसे निश्चय हो गया कि जो रानी अपनी जिद्द के कारण उसके प्राणों को संकट में डाल रही है, उसका प्रेम भी मिथ्या ही है । राजा ने रानी से स्पष्ट कह दिया कि वह मरे या जिए पर वह उसे उक्त मुस्कान और रुदन का कारण नहीं बताएगा ।
राजा चारों सारों के मूल्य से परिचित हो चुका था । उसने श्रेष्ठी जिनदत्त को आमंत्रित कर सम्मानित किया और मंत्री पद प्रदान किया। बाद में राजा ने गणिका वसंतसेना को भी अपने राज्य में आमंत्रित किया और उसे बहुत से पारितोषिक दिए । राज-सम्मान पाकर गणिका ने भी निन्दनीय व्यवसाय का परित्याग कर धर्मसाधनामय जीवन जीने का व्रत ले लिया ।
(ग) जिनदत्त
चम्पानगरी निवासी एक सेठ । (देखिए - नागश्री) ••• जैन चरित्र कोश -
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