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(क) जिनदत्त
पुरिमताल नगर का एक धनी श्रेष्ठी, जिसके जीवन में उत्थान-पतन के कई कष्टकारी क्षण उपस्थित हुए। (देखिए-रत्नपाल) (ख) जिनदत्त
एक श्रमणोपासक, सच्चरित्र और प्रामाणिक श्रावक। उसका व्यापार दूर देशों में फैला हुआ था। एक बार विदेश प्रस्थान करते हुए उसने अपने मित्रों और पारिवारिकों से पूछा कि वह विदेश से उनके लिए क्या लाए। सभी ने अपनी-अपनी पसंद की वस्तुएं उसे बता दीं। उसी क्रम में नगर नरेश ने अपने लिए चार सार मंगवाए।
विदेश में जाकर जिनदत्त ने व्यापार किया। लौटते हुए उसने सभी के लिए इच्छित वस्तुएं खरीद लीं। पर राजा की वस्तुएं वह नहीं खरीद सका। आखिर एक अनुभवी वृद्ध ने उसका मार्गदर्शन करते हुए कहा, उसे चार सार गणिका वसंतसेना से प्राप्त हो सकते हैं। जिनदत्त गणिका के पास पहुंचा और उससे चार सार मांगे। गणिका ने चार सार के लिए चार लक्ष मुद्राएं जिनदत्त से मांगी। जिनदत्त ने चार लक्ष मुद्राएं प्रदान कर चार सार खरीद लिए। वे चार सार थे-1. क्रोध के वश होकर कोई कार्य न करे, 2. अति निद्रा न ले, 3. शत्रु को प्रेम से वश में करे, 4. स्त्री के वशवर्ती न बने।
जिनदत्त अपने नगर पहुंचा। सभी की इच्छित वस्तुएं उसने प्रदान कर दीं। राजा को भी उसके चार सार प्रदान कर दिए। राजा ने विचार किया कि चार सारों की परीक्षा करनी चाहिए। वह उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। एक बार उसे दरबार में विलम्ब हो गया। देर रात वह अपने शयन कक्ष में पहुंचा तो उसने अपनी रानी के साथ किसी पुरुष को सोए हुए देखा। यह देखकर राजा की भ्रूकुटी चढ़ गई। क्रोध से वह थर-थर कांपने लगा। तलवार खींच ली। जैसे ही उसने उक्त पुरुष पर वार करना चाहा, उसे जिनदत्त द्वारा दिए गए सार का स्मरण हो आया कि क्रोध के वश होकर कोई कार्य न करे। राजा ने इस सार की परीक्षा के लिए अपने क्रोध पर अंकुश लगा दिया। वह अपनी शैया के निकट गया। वह यह देखकर दंग रह गया कि उसकी छोटी बहन ही पुरुष वेश में अपनी भाभी के साथ सो रही है। तभी पुरुषवेशी बहन की निद्रा भी टूट गई। उसने मुस्कराते हुए कहा, भैया! खेल-खेल में मैंने आज आपके वस्त्र पहन लिए और भाभी की गोद में कब नींद आ गई इसका पता ही नहीं चला!
राजा ने बहन को कण्ठ से लगा लिया। साथ ही सार की परीक्षा से वह अतीव प्रसन्न हुआ। उसे विश्वास हो गया कि उस द्वारा व्यय किया गया धन व्यर्थ नहीं गया है। अब वह शेष सारों को आजमाने को उतावला हो गया। वह पूर्वापेक्षया कम निद्रा लेने लगा। एक रात्रि में वह जग रहा था। उसे एक नारी के रुदन का स्वर सुनाई दिया। वह महल के बाहर निकला। कुछ दूरी पर जाने के बाद उसे एक सुसज्जित स्त्री दिखाई दी। राजा ने उसका परिचय और रोने का कारण पूछा। उस स्त्री ने बताया कि वह नगर रक्षिका देवी है और इसलिए रो रही है कि कल सर्पदंश से नगरनरेश की मृत्यु हो जाएगी। उसकी बात सुनकर क्षणभर के लिए राजा सन्न रह गया। तदनन्तर उसने अपने भावों पर अंकुश लगाते हुए नगररक्षिका देवी से यह पूछा कि सर्प किस दिशा से आकर राजा को डॅसेगा। देवी ने बता दिया कि सर्प पूर्वदिशा से आएगा। देवी को मधुर वचनों से सान्त्वना देकर राजा अपने महल में लौट आया। कम निद्रा लेने रूप सार का मूल्य वह जान चुका था। उसने तृतीय सार को आजमाने का निश्चय किया कि शत्रु को प्रेम से जीतो। ... 206 ...
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