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तट था। वहां उन्हें एक मुनि के दर्शन हुए। धर्मदेशना सुनकर पांचों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया। रत्नद्वीप पर रहकर जिनचंद्र कुमार ने व्यापार किया और पर्याप्त धन अर्जित किया। आखिर धन को रत्नों में बदलवा कर एक श्रेष्ठी के जहाज पर सवार होकर जिनचंद्र अपनी पत्नियों के साथ अपने देश के लिए रवाना हुआ। मार्ग में श्रेष्ठी की दृष्टि जिनचंद्र की पत्नियों पर पड़ी तो वह उनके रूप पर मुग्ध हो गया। उसने अपने साथियों के सहयोग से जिनचंद्र को समुद्र में फेंक दिया। सेठ ने मदनमंजरी आदि चारों बालाओं के समक्ष काम-प्रस्ताव रखा। चारों बालाओं ने सिंहनी बनकर सेठ को ललकारा तो वह भय से कपित हो गया। उसने अपने नगर चंद्रपुर पहुंचकर ये चारों बालाएं राजा को भेंट कर दी।
उधर कई दिनों तक काष्ठखण्ड के सहारे जिनचंद्र सागर के वक्ष पर तैरता रहा। एकाएक उसे देवमित्र की स्मृति हुई। देव उपस्थित हुआ और उसने जिनचंद्र की प्रार्थना पर उसे चंद्रपुर पहुंचा दिया। जिनचंद्र ने दरबार में जाकर सेठ के विरुद्ध शिकायत की। राजा ने वस्तुस्थिति से परिचित बनकर सेठ को अपने देश से निर्वासित कर दिया और जिनचंद्र को उसकी चारों पत्नियां ससम्मान लौटा दीं। साथ ही जिनचंद्र के
आचार-व्यवहार और व्यक्तित्व पर मुग्ध होकर राजा ने अपनी पुत्री का विवाह भी उससे कर दिया। राजा ने प्रीतिदान में हाथी, घोड़े, रथ और पर्याप्त धन सामग्री जिनचंद्र कुमार को दी। वहां से जिनचंद्र पांच पलियों
और पर्याप्त ऐश्वर्य के साथ अपने नगर लौटा। माता-पिता पुत्र और पुत्रवधुओं को देखकर हर्षाभिभूत हो गए। पुत्र और पुत्रवधुओं को गृहदायित्व देकर सेठ धनावह पत्नी सहित प्रव्रजित हो गए।
जिनचंद्र पांचों पलियों के साथ श्रावकधर्म का पालन करते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगा। उनकी धर्मश्रद्धा सुदृढ़ से सुदृढ़तर बनती रही। कालक्रम से पांचों पत्नियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र जब योग्य हो गए तो जिनचंद्र कुमार ने उनको गृहदायित्व प्रदान किए और वह स्वयं पांचों पत्नियों के साथ प्रव्रजित होकर साधनारत बन गया। उन पांचों साधकों ने आयुष्य पूर्ण कर देवभव प्राप्त किया। कालक्रम से पांचों ही मोक्ष जाएंगे। -जैन कथा रत्न कोष भाग 6 / गौतम कुलक बालावबोध / षड्पुरुष चरित्र जिनचंद्र मणिधारी (आचार्य)
एक यशस्वी और प्रभावशाली जैन आचार्य। 'मणिधारी आचार्य जिनचंद्र' और 'बड़े दादा', इन दो नामों से वे जैन जगत में विख्यात हैं। कहते हैं कि जन्म से ही उनके मस्तक में मणि थी, जिसकी सूचना उन्होंने अपने स्वर्गवास से कुछ समय पूर्व ही संघ को दी थी।
आचार्य जिनचंद्र मणिधारी जी का जन्म राजस्थान प्रान्त के विक्रमपुर गांव में एक वैश्य परिवार में वी. नि. 1661 में हुआ था। उनके पिता का नाम रासलाल और माता का नाम देल्हण देवी था। बारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने बड़े दादा जिनदत्त सूरि के श्री चरणों में दीक्षा धारण की और आगम वांगमय का पारायण किया। अपने युग के वे एक विद्वान और प्रभावशाली मुनि थे। गुरु के स्वर्गारोहण के पश्चात् वे खरतरगच्छ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए।
दिल्ली नरेश मदनपाल आचार्य जिनचंद्र मणिधारी का अनन्य भक्त था।
आचार्य श्री अपने युग के विश्रुत विद्वान थे। शास्त्रार्थ के कई प्रसंग उनके जीवन में आए, जिनमें वे विजयी रहे।
वी.नि. 1693 में दिल्ली में उनका स्वर्गवास हुआ। वर्तमान में दिल्ली के उपनगर महरौली नामक स्थान पर उनका स्मृति स्तूप विद्यमान है, जो दादावाड़ी नाम से पुकारा जाता है। -श्री जिनचंद्र सूरि चरित ... 204
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