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घोषणा का अनुसरण कर अन्य अनेक राजाओं ने भी अपने-अपने राज्यों में अमारि की घोषणाएं की, जिससे अहिंसा भगवती की आराधना और जिनशासन की प्रभावना हुई। शहंशाह जहांगीर भी आचार्य जिनचंद्र के प्रति निष्ठाभाव रखता था।
आचार्य जिनचंद्र का स्वर्गवास वी.नि. 2140 (वि.सं. 1670) में विलाड़ा ग्राम में हुआ। जिनचंद्र कुमार
विजयपुर नगर के नगरसेठ धनावह का इकलौता पुत्र । एक पुण्यशाली युवक, जिसे अचाहे और अयाचे ही सुख-समृद्धि और भोगोपभोग के साधन प्राप्त होते रहे। वह जब सोलह वर्ष का हुआ तो उसने एक दिन विचार किया, युवावस्था में पितृ-धन का उपभोग करने वाला पुत्र पाप का भागी होता है। मैं युवा हूं। मेरा दायित्व बनता है कि मैं स्वयं धनार्जन करूं और उस धन को स्व-पर कल्याण में नियोजित करूं। पर मेरे माता-पिता का अनुराग मेरे विदेश-गमन में बाधा बनेगा। वे मुझे विदेश जाने की अनुमति नहीं देंगे। उचित यही है कि माता-पिता को सूचित किए बिना ही मुझे विदेश चले जाना चाहिए। इस विचार के साथ जिनचंद्र कुमार सीधा सागर तट पर पहुंच गया। वह उधर से गुजरने वाले किसी जहाज की प्रतीक्षा करने लगा। सागर तट पर चहलकदमी करते हुए उसने एक स्थान पर तीन लोगों को वार्तालाप करते देखा। तीनों ही भिन्न-भिन्न दोषों को गिनकर सागर की निन्दा कर रहे थे। एक ने कहा, अथाह जल का स्वामी होने पर भी सागर किसी की प्यास नहीं बुझा सकता। दूसरे ने कहा, रत्नाकर कहलाकर भी किसी को फूटी कौड़ी नहीं देता। तीसरे ने भी अपनी खीझ प्रकट की। उनके इस वार्तालाप को सुनकर जिनचंद्र ने कहा, भाइयो! तुम्हारे देखने और सोचने का ढंग ही उलटा है। सागर की विशेषताओं को तुम विपरीत बनाकर कह रहे हो! सागर गंभीरता का सबक हमें सिखाता है। वह हमें मर्यादा में रहने की सीख देता है। वह रत्नाकर है और गहरे पैठने वालों को रत्न और मुक्ताएं भी देता है।
. समुद्र के अधिष्ठाता देव ने जिनचंद्र की बातें सुनीं। उसकी गुण-दृष्टि पर प्रसन्न होकर वह जिनचंद्र के समक्ष प्रकट हुआ। उसने उसकी गुणदृष्टि की प्रशंसा की और उसे पांच बहुमूल्य रत्न दिए। जिनचंद्र के कहने पर उसने उसे सागर पार के नगर तारापुर पहुंचा दिया। साथ ही कहा कि जब भी उसे उसकी आवश्यकता अनुभव हो, स्मरण कर ले, वह उपस्थित हो जाएगा।
तारापुर नगर के राजोद्यान में जिनचंद्र कुमार विश्राम करने लगा। उधर राजकुमारी मदनमंजरी, मंत्री पुत्री कुसुममंजरी, नगरसेठ की पुत्री पुष्पमंजरी और राजपुरोहित की पुत्री काममंजरी उद्यान भ्रमण के लिए आईं। ये चारों अंतरंग सखियां थीं और चारों का निश्चय था कि वे एक ही पुरुष से विवाह करेंगी। संयोग से एक कृष्ण विषधर ने उन चारों कन्याओं का रास्ता रोक लिया। भयातुर कन्याएं चिल्लाईं। जिनचंद्र दौड़कर वहां पहुंचा। उसने मधुर स्वर में कहा, नागराज! आप साक्षात् देव रूप हैं, इन बालाओं को क्षमा कर दो! इनसे यदि आपका कुछ अहित हुआ है तो उसका दण्ड मुझे दीजिए!
चमत्कार घटा। नाग चला गया। चारों कन्याओं के हृदय में जिनचंद्र बस गया। राजा, मंत्री आदि के कानों तक जिनचंद्र की कीर्तिगाथा पहुंची। अंततः चारों कन्याओं का विवाह जिनचंद्र से सम्पन्न हुआ। कुछ दिन ससुराल में बिताकर जिनचंद्र ने स्वदेश के लिए प्रस्थान किया। प्रीतिदान-स्वरूप कई जहाज धन-धान्य से भरकर राजा ने उसे प्रदान किए। चारों पत्नियों के साथ यात्रा अतीव सुखद थी। पर अकस्मात् पाप कर्म का उदय हुआ और तूफान में फंसकर जहाज समुद्र में समा गए। पूर्वजन्म के मित्र एक देव ने हाथी का रूप धारण कर जिनचंद्र और उसकी चारों पलियों की रक्षा की और उन्हें तट पर पहुंचा दिया। यह रत्नद्वीप का ... जैन चरित्र कोश ...
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