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मार्ग से दोनों का मिलन होता था। एक बार शृंगारमंजरी ने धनंजय से कहा कि उसे उन दोनों के मध्य में उसका पति राजा जयरथ बाधा प्रतीत होता है। यह बाधा दूर हो जाए तो उनके आनन्द का पारावार न रहे। धनंजय ने कहा, इस बाधा से पार पाने का तो कोई भी उपाय नहीं है। शृंगारमंजरी ने कहा, क्यों नहीं है उपाय! मैं आज रात्रि में ही उपाय कर देती हूं। मैं राजा का वध कर दूंगी।
रात्रि में धनंजय को नींद नहीं आई। वह सुरंग मार्ग से शृंगारमंजरी के महल में जा पहुंचा। उसने देखा-शृंगारमंजरी कपटनिद्रा में सो रही है। कुछ ही क्षण बाद राजा भी सो गया। शृंगारमंजरी को जब विश्वास हो गया कि राजा सो चुका है तो वह उठी। उसने तलवार निकाली और राजा पर प्रहार करने को तैयार हुई। धनंजय ने शृंगारमंजरी के हाथ से तलवार छीन ली। उसने कहा, यदि वह राजा का वध करेगी तो उसे भी खो देगी। धनंजय की चेतावनी पर शृंगारमंजरी ने अपना संकल्प बदल दिया।
धनंजय अपने घर लौट आया। एक स्त्री के ऐसे चरित्र को देखकर वह विरक्त हो गया और दीक्षित होकर जंगल में चला गया। उधर एक दिन वक्रशिक्षित अश्व पर बैठकर राजा वन विहार को निकला। वल्गा खींचने पर अश्व तीव्र गति से दौड़ने लगा। राजा समझ गया कि अश्व को वक्र शिक्षा दी गई है। सो उसने वल्गा को ढीला छोड़ दिया। कुछ ही देर में अश्व अपने आप रुक गया। राजा ने वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ एक मुनि को देखा। युवा मुनि को देखकर राजा उसके निकट गया और वन्दन कर बैठ गया। मुनि के ध्यान पूर्ण करने पर राजा ने पूछा, महाराज! इस युवावस्था में आपने संयम किस निमित्त से धारण किया? मुनि ने कहा,
आपके निमित्त से। राजा चौंका। उसने पूछा, मैंने आपको कभी देखा तक नहीं, फिर मैं आपके वैराग्य का निमित्त कैसे हो सकता हूं?
धनंजय मुनि ने अपना परिचय दिया और समग्र गुप्तकथा कहकर राजा के नेत्र खोल दिए। राजा को अपनी रानी पर बहुत क्रोध आया। परन्तु अपने क्रोध को उसने वैराग्य में बदल दिया। वह राजमहल लौटा। रानी शृंगारमंजरी को धिक्कार देकर उसने दीक्षा धारण कर ली और निरतिचार चारित्र की आराधना कर परम गति प्राप्त की। कालान्तर में शृंगारमंजरी की देह में कुष्ठ उत्पन्न हो गया। उसी रोग से मरकर वह नरक में गई।
. -शृंगारमंजरी रास (जयवंत सूरि सं. 1614) जय-विजय
नन्दीपुर नगर के राजा धर्मसेन के पुत्र, साहसी, शूरवीर और दृढ़धर्मी राजकुमार। जय की माता का नाम श्रीकान्ता तथा विजय की माता का नाम श्रीदत्ता था। अलग-अलग माताओं के पुत्र होने पर भी जय
और विजय में घनिष्ठतम आत्मभाव था। राजा और प्रजा भ्रातयगल पर प्राण लुटाते थे। राजा धर्मसेन की एक अन्य रानी थी-श्रीमती। श्रीमती का भी एक पुत्र था-नयधीर । नयधीर आत्मोन्मुखी था। उसे एकान्त में रहना अच्छा लगता था। श्रीमती को जय और विजय की लोकप्रियता पर ईर्ष्या हो आई। उसने अत्यन्त चतुराई से एक षड्यंत्र रचा और जय-विजय को देशनिकाला दिला दिया।
- जय और विजय ने दण्ड को अपने पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का फल माना। दोनों भाई नन्दीपुर से निकलकर प्रदेश के लिए चल दिए। विजन वन में रात्रि विश्राम के लिए रुके। वहां एक यक्ष ने दोनों भाइयों को तीन दैवी वस्तुएं दीं। वे वस्तुएं थीं-एक मणि, जिससे इच्छित धन प्राप्त किया जा सकता था, रूप बदला जा सकता था और आकाश में उड़ा जा सकता था। दूसरी-महौषधि, जिससे सभी रोग शान्त किए जा सकते .. 192 ..
- जैन चरित्र कोश...