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जयघोष
वाराणसी नगरी का रहने वाला एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण । वैराग्योत्पादक किसी दृश्य को देखकर वह विरक्त हो गया और उसने श्रमण दीक्षा ले ली ।
अनेक वर्ष पश्चात् जयघोष मुनि वाराणसी नगरी में आए। वे मासोपवासी थे । पारणे के लिए चले । संयोग से वे अपने ही सहोदर विजयघोष के यज्ञस्थल पर भिक्षा के लिए पहुंचे । विजयघोष भाई को पहचान न सका। उसने जयघोष को तिरस्कारपूर्ण वचनों से कहा कि इस यज्ञस्थल में केवल ब्राह्मण ही भोजन पा सकते हैं, अन्य नहीं, तुम चले जाओ ।
जयघोष मुनि विजयघोष को प्रतिबोधित करना चाहते थे । उन्होंने उससे ब्राह्मणत्व का अर्थ पूछा । उत्तर में विजयघोष ने ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न व्यक्ति को ब्राह्मण बताया । इसे अतार्किक सिद्ध करते हुए जयघोष ने कहा कि व्यक्ति जन्म अथवा जाति से ब्राह्मण या शूद्र नहीं होता है । व्यक्ति की जाति का सम्बन्ध उसके कर्म से होता है । अतः सच्चा ब्राह्मण वह है, जो ब्रह्मचर्य का पालक हो ।
विजयघोष को मुनि की बात तर्कसंगत लगी । तदनन्तर दोनों भाइयों के मध्य प्रश्नोत्तर रूप में लम्बा संवाद चला। परिणामतः विजयघोष प्रतिबुद्ध बन गया और पौद्गलिक यज्ञ का त्याग कर आध्यात्मिक यज्ञ की साधना के लिए श्रमणधर्म में दीक्षित हो गया । अन्ततः दोनों मुनि मोक्ष में गए ।
- उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 25
जयदेव
हस्तिनापुर नगर के रहने वाले कुशल रत्न पारखी श्रेष्ठी नागदेव का पुत्र । जयदेव स्वयं भी रत्नपरीक्षा कला में प्रवीण था। उसके घर में नौ पीढ़ियों से रत्नों का व्यापार होता रहा था। फलतः उसके रत्नभण्डार में एक से एक मूल्यवान रत्न थे । शास्त्रों में वर्णित सभी रत्न उसके भण्डार में मौजूद थे, पर एक रत्न नहीं था, वह था चिन्तामणि रत्न । जयदेव की हार्दिक कामना थी कि उसके भण्डार में चिन्तामणि रत्न भी हो। उसने अपने मन में संकल्प कर लिया कि वह चिन्तामणि की खोज में अपना जीवन अर्पित कर देगा । उसने अपने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त की और चिन्तामणि रत्न की खोज में चल दिया। उसने पूरा जगत छान डाला -दूर देशों में गया, बड़े-बड़े रत्न व्यापारियों से मिला, निर्जन वनों और अलंघ्य पर्वतों को लांघा पर उसका संकल्प सफल नहीं बन पाया। थककर एक स्थान पर एक वृक्ष से पीठ टिका कर वह निराश हो गया। उसी समय उसे एक गडरिया दिखाई दिया, जो भेड़ों के झुण्ड को लिए जा रहा था। उसकी लकुटिया पर एक चमकीला पत्थर बंधा था। जयदेव ने उसे देखते ही जान लिया कि वह चिन्तामणि रत्न ही है । जयदेव ने मधुर-मिष्ठ शब्दों से गडरिए को अपने पास बैठाया। उससे उस रत्न- प्राप्ति के बारे में पूछा। गडरिए ने बताया कि उसे वह पत्थर पर्वत पर प्राप्त हुआ है। जयदेव ने गडरिए से वह रत्न मांगा। पर गड़रिए ने देने से इन्कार कर दिया । जयदेव ने गडरिए को उस रत्न का महत्व समझाया और कहा, यथाविधि से पूजा-अर्चना से यह रत्न व्यक्ति को इच्छित वस्तुएं देता है ।
गडरिए को जयदेव की बात पर विश्वास नहीं था । वह दौड़कर अपनी भेड़ों के पास जा पहुंचा और उन्हें हांकने लगा | जयदेव जानता था कि दिव्य रत्न को गडरिए के लिए संभाल पाना असंभव है । इसलिए वह उसके पीछे-पीछे चल दिया । मार्ग में गडरिया रत्न को 'हुंकार' का दायित्व देकर एक कहानी सुनाने लगा । रत्न द्वारा 'हुंकार' न दिए जाने पर गडरिया नाराज हो गया और उसने रत्न को क्रोध में भरकर एक जैन चरित्र कोश
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