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महावीर-अधर्मियों का सोए रहना अच्छा है और धर्मियों का जागते रहना अच्छा है। जयन्ती-यह कैसे, भंते?
महावीर-जयन्ती! धर्मनिष्ठ व्यक्ति जब तक जागता रहेगा, वह धर्माराधना ही करता रहेगा। वह अन्य अनेक व्यक्तियों में भी धर्मरुचि उत्पन्न करेगा। इसलिए मैंने कहा कि धर्मात्मा का जागना अच्छा है। अधर्मी व्यक्ति जब तक सोया रहेगा तब तक हिंसादि अधर्म से बचा रहेगा। अन्य अनेक प्राणी भी उसके सोए रहने से जीवित बचे रहेंगे। जागते ही वह हिंसा में लिप्त हो जाएगा। इसलिए मैंने कहा, अधर्मी का सोए रहना उसके जागने से अच्छा है। ये और ऐसे अनेक प्रश्नोत्तर जो जयन्ती और भगवान महावीर के मध्य चले, भगवती सूत्र में संग्रहीत
-भगवती सूत्र जयचंद्र (मधुबिंदु)
हस्तिनापुर नगर का व्यापारी। एक बार उसने धनपाल नामक सार्थवाह के साथ देशाटन किया। किसी समय सार्थ एक निर्जन वन में विश्राम के लिए रुका। जयचंद्र निर्विघ्न विश्राम के लिए सार्थ से दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे सो गया। जब उसकी निद्रा टूटी तो उसने पाया कि सार्थ जा चुका था। वह घबराया। उसकी घबराहट तब चरम पर पहुंच गई, जब उसने एक विशालकाय हाथी को अपनी ओर दौड़ते हुए देखा। वह वृक्ष पर चढ़ गया। हाथी ने वृक्ष को सूंड में लपेटा और हिला दिया। वृक्ष से गिरते हुए जयचंद्र को वृक्ष की एक शाखा हाथ में आ गई। उसने देखा, दो चूहे उस शाखा को बड़ी तत्परता से काट रहे थे। नीचे झांका तो पाया कि एक अन्धकूप में चार विशाल अजगर मुंह खोले उसके गिरने का इन्तजार कर रहे थे। वृक्ष के हिलने से उस पर रहा हुआ मधुमक्खियों का छत्ता हिल गया। असंख्य मक्खियां जयचंद्र को डसने लगी। पर छत्ते के हिलने से बूंद-बूंद मधुबिन्दु उसके मुख में टपकने लगा। उस मिठास में वह ऐसा आसक्त बना कि भूल ही गया कि वह चारों ओर से मृत्यु से घिरा है।
कहते हैं कि उधर से एक देव विमान गुजरा। जयचंद्र की दुरावस्था पर देव को करुणा आ गई। उसने अपना विमान जयचंद्र के निकट किया और उसे विमान पर बुलाया। पर मधुबिन्दु का लोभी जयचंद्र ‘एक बूँद और एक बूंद और' कहकर देवता के आमंत्रण से जी चुराता रहा। आखिर चूहों ने डाली को कुतर डाला और अजगरों ने जयचंद्र को निगल लिया।
(एक चरित्रकथा के साथ-साथ यह एक शिक्षा-कथा भी है। जयचंद्र जीवात्मा है। वृक्ष जीवन है, जिसे दिन और रात रूपी दो चूहे निरंतर कुतर रहे हैं। कालरूप हाथी है। चार अजगर चार गतियां हैं। देव का
आमंत्रण सद्गुरु का आमंत्रण है। पर इन्द्रियों के बूंद मात्र रस के लिए जीवात्मा चारों ओर खड़ी मृत्यु को विस्मृत कर देता है और परिणामतः चतुष्णतिरूप अजगरों का आहार बन जाता है)। जय (चक्रवर्ती)
वर्तमान अवसर्पिणी काल के ग्यारहवें चक्रवर्ती। राजगृह नरेश विजय तथा उनकी रानी के अंगजात। उनका जन्म इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के शासन काल में हुआ। षट्खण्ड साधकर चक्रवर्ती पद पर आरूढ़ हुए। अनेक वर्षों तक राजपद पर रहने के पश्चात् मुनि बने। अन्त में कैवल्य साधकर तथा तीन हजार वर्ष का सर्वायु भोगकर मुक्त हुए। ... 188 ...
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