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इतने वस्त्र धारण करके भी शीत से कांप रही हूं और एक ये महामुनि हैं, जो अल्प वस्त्र के साथ अकंप खड़े हैं। रात में महारानी चेलना सोई तो उसका एक हाथ कंबल से बाहर रह गया। सर्दी से उसका हाथ ठिठुर गया। उसने हाथ को कंबल में खींच लिया। उस अर्धनिद्रित अवस्था में उसके मुख से निकला - उसका क्या हाल होगा, कैसे सह रहा होगा वह इस शीत को !
सहसा चेलना के ये शब्द राजा श्रेणिक के कानों में भी पड़े। रानी निद्रित अवस्था में किसे स्मरण कर रही है ? दुराशंकाओं से पूरित बन गया राजा का मानस । उसके भीतर भयानक क्षोभ जाग गया। सुबह होने पर श्रेणिक अपने कक्ष से बाहर आए। सामने अभय को पाकर उन्होंने आदेश दिया- चेलना के महल में आग लगा दो ! कहकर श्रेणिक भगवान के दर्शनों के लिए चले गए। अभयकुमार ने बुद्धिमत्ता से कार्य किया और महल के परिसर के एक कोने में घास-फूस एकत्रित कराकर उसमें आग लगवा दी। उधर श्रेणिक भगवान के पास पहुंचे। श्रेणिक की मनोव्यथा के उपचार के लिए भगवान ने सप्रसंग कहा - महाराज चेटक की सातों पुत्रियां परम शीलवती नारियां हैं।
भगवान की बात सुनकर श्रेणिक चौंका। उसने रात वाली बात भगवान से कही और पूछा, भगवन् ! चेलना निद्रा में किसे स्मरण कर रही थी ? भगवान ने पहले दिन चेलना द्वारा देखे गए मुनि और उनकी शीतजयी साधना से उसके प्रभावित होने की पूरी घटना सुनाते हुए कहा कि चेलना उसी मुनि के बारे में चिन्तित थी ।
श्रेणिक तत्क्षण तेज कदमों से महल की ओर चल दिए । दूर से उठते धुएं को देखकर उनका मन और अधिक सशंकित बन गया। रास्ते पर, भगवान के दर्शनों के लिए निकले अभय को देखकर श्रेणिक ने पूछा- क्या तुमने आग लगा दी ? अभय ने उत्तर दिया- महाराज ! भला मैं राजाज्ञा का उल्लंघन कैसे करता ? मैंने आपके आदेश का पालन कर दिया है। सुनकर श्रेणिक विषाद और क्रोध से बोले-अ - अभय! मेरे नेत्रों के सामने से दूर चले जाओ! तुमने महान अकार्य कर दिया है !
शीघ्रता से श्रेणिक महलों में पहुंचे। रानी चेलना को सुरक्षित पाकर उनके हर्ष का पारावार न रहा । उन्होंने अपनी आशंका के लिए चेलना से क्षमापना की और बोले- देवि! तुम धन्य हो ! परम धन्य हो ! आज स्वयं देववन्दित तीर्थंकर भगवान ने तुम्हारे शील की अनुशंसा की है !
इस घटना के बाद राजा और चेलना का पारस्परिक प्रेम पूर्वापेक्षया शतगुणित हो गया ।
अजातशत्रु कोणिक चेलना का ज्येष्ठ पुत्र था जो कालान्तर में महाराज श्रेणिक की मृत्यु का कारण बना। पति मृत्यु के बाद चेलना ने संयम स्वीकार कर लिया और विविध प्रकार के तपों द्वारा आत्मकल्याण किया । - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र
चौथमल जी महाराज (जैन दिवाकर)
स्थानकवासी जैन परम्परा के अतिशय प्रभावशाली मुनिराज । आपका जन्म नीमच नगर में श्रीमान गंगाराम जी की धर्मपत्नी श्रीमती केसरबाई की रत्नकुक्षी से वि.सं. 1934 कार्तिक सुदी त्रयोदशी, रविवार के दिन हुआ । सोलह वर्ष की अवस्था में मानकुंवर नामक कन्या से आपका पाणिग्रहण हुआ। भ्राता और पिता
देहान्त ने आपके भीतर संसार की अस्थिरता और नश्वरता का सम्यक् बोध जागृत कर दिया। ममत्व के बन्धनों को तोड़कर आप ने सं. 1952 में कविवर्य श्री हीरालाल जी महाराज के श्री चरणों में दीक्षा धारण कर ली । *** 182
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