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सम्मति से एक विशाल अग्निकुण्ड निर्मित कराया। सुनिश्चित समय पर कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। चंपकमाला अग्निकुण्ड के समीप खड़ी हो गई। परम्परानुसार अग्नि में उड़द के कण डाले गए। उससे अग्नि ने ऐसा विकराल रूप धारण किया कि सर्वत्र अग्नि लीला फैल गई। उपस्थित विशाल जनसमूह को लगा कि यदि तत्क्षण अग्नि को शान्त न किया गया तो क्षण भर में ही वह पूरे नगर को स्वाहा कर देगी। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई। वस्तुस्थिति को अनुभव कर चंपकमाला ने गंभीर स्वर में उद्घोषणा की, यदि मैंने तन, मन, वचन से शीलधर्म का पालन किया है तो अग्नि शान्त हो जाए!
चंपकमाला की इस उद्घोषणा के साथ ही अग्नि शान्त हो गई। शासन संरक्षिका देवी ने चंपकमाला पर पुष्पवर्षा की। उपस्थित जनसमुदाय चंपकमाला के शील का चमत्कार देख चुका था। सभी लोग चंपकमाला की जय-जयकार करने लगे।
सुलसा भयभीत होकर चंपकमाला के चरणों पर आ गिरी। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। राजा ने उसे मृत्युदण्ड दिया। पर चंपकमाला ने सुलसा के पश्चात्ताप से निर्मल बने हृदय को देखकर उसे क्षमादान दिया। दुल्लहदेवी को भी अपनी भूल का अनुभव हो चुका था। उसने भी चंपकमाला और राजा से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।
चंपकमाला का सुयश दशदिक् में व्याप्त हो गया। राजा का प्रेम उस पर श्रद्धा की कोटि तक जा पहुंचा। कालक्रम से चंपकमाला ने दो पुत्रों और एक पुत्री को जन्म दिया। राजकुमार और राजकुमारी अनुक्रम से शिक्षित-दीक्षित होकर युवा हुए। महाराज अरिकेसरी के मन में संकल्प जगा कि वे अपने पुत्र को राज्य- " भार प्रदान कर दीक्षा ग्रहण करें। सम्यक् संकल्प सुफलित हुआ। एक केवली मुनि नगर में पधारे। महाराज अरिकेसरी पुत्र को राज्यभार प्रदान कर दीक्षित हो गए। चंपकमाला ने भी पति का अनुगमन किया और उसने भी प्रव्रज्या धारण कर ली। निरतिचार संयम की आराधना से राजर्षि अरिकेसरी और साध्वी चंपकमाला ने मोक्ष प्राप्त किया।
-सुपार्श्वनाथ चरित्र / जैन कथा रत्न कोष भाग 6 / बालावबोध गौतमकुलक चंपक सेठ __पांचाल देश के काम्पिल्यपुर नगर के श्रेष्ठी त्रिविक्रम की एक दासी पुष्पश्री का पुत्र । दासी-पुत्र होकर भी चंपक अपने समय का विख्यात धनकुबेर व्यापारी बना। यह उसकी श्रमनिष्ठा और बुद्धिकौशल का तो परिचायक था ही, साथ ही उसके पूर्वजन्म के पुण्यों को भी सहज सिद्ध करता था। जन्म से ही चंपक को एक प्राणघातक शत्रु की कुटिल छाया के तले जीना पड़ा, पर पूर्वजन्म के पुण्यों के कारण वह शत्रु के प्रत्येक प्रहार से रक्षित बनता रहा, और उसका शत्रु ही अन्ततः अपने ही प्रहार का शिकार होकर काल का ग्रास बन गया। चंपक का वह जन्मजात शत्रु था चम्पानगरी का धनी सेठ वृद्धदत्त । वृद्धदत्त के पास अपार वैभव था। कहते हैं कि छियानवे करोड़ स्वर्णमुद्राएं तो उसने भूमि में छिपाकर रखी थीं। दान-पुण्य से उसका दूर का भी रिश्ता नहीं था। वह निःसंतान था और उसे पत्र की कामना मात्र इसलिए थी कि वह पत्र के साथ मिलकर
और अधिक धन कमा सके। परन्त उसे पत्र की प्राप्ति नहीं हई। वद्धदत्त की पत्नी कौतकवती चाहती थी कि उसे संतान की प्राप्ति हो. फिर भले ही वह संतान कन्या ही हो। ____एक बार रात्रि में वृद्धदत्त को उसकी कुलदेवी ने दर्शन दिए और उससे कहा, सेठ! तुम्हारे धन का उपभोग करने वाला बालक शीघ्र ही एक दासी के उदर से जन्म लेने वाला है। सेठ ने पूछा, वह कौन दासी है? कुलदेवी ने बताया, वह काम्पिल्यपुर नगर के सेठ त्रिविक्रम की दासी पुष्पश्री है। उसके गर्भ में जो जीव पल रहा है, वही तुम्हारी सम्पत्ति का उपभोक्ता होगा। कहकर कुलदेवी अन्तर्धान हो गई। ... जैन चरित्र कोश ...
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