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चंपकमाला
विशाला नगरी के राजा ललितांग की पुत्री, स्त्री की चौंसठ कलाओं में निपुण, धर्म और दर्शन में निष्णात तथा सम्यक्त्व-स्नात बाला। युवावस्था में उसका पाणिग्रहण कुणाला नगरी के राजा अरिकेसरी से सम्पन्न हुआ। चंपकमाला ने महाराज अरिकेसरी को भी जिनोपासक बना दिया। राजा चंपकमाला के रूप और गुणों पर मंत्रमुग्ध था। चंपकमाला से विवाह के पश्चात् वह अपनी अन्य रानियों से प्रायः विमुख रहने लगा। पटरानी दुल्लहदेवी ने पति-विमुखता का कारण चंपकमाला को माना। पर वह चंपकमाला का कुछ अहित इसलिए नहीं कर सकती थी कि प्रथम तो वह राजा को प्रिय थी और दूसरे वह विदुषी और बुद्धिमती थी। दुल्लहदेवी ने बहुत चिन्तन-मनन करने के पश्चात् सुलसा नामक एक परिव्राजिका को पर्याप्त धन से प्रसन्न कर चंपकमाला को अपमानित और निन्दित करने का दायित्व दिया। परिव्राजिका इस कार्य को अपने बाएं हाथ का कार्य समझती थी। उसने चंपकमाला से स्नेह-सम्बन्ध स्थापित कर उसे पुत्र-प्राप्ति के लिए कालीदेवी की पूजा करने को प्रेरित किया। पर चंपकमाला तो एक दृढ़धर्मिणी सन्नारी थी। उसने परिव्राजिका का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। परिव्राजिका ने वाक्चातुर्य से चंपकमाला को पुनः तदर्थ मनाना चाहा। इतना ही नहीं, उसने जिनधर्म की निन्दा भी कर दी। इस पर चंपकमाला ने उसे डांट-फटकारकर अपने महल से भगा दिया। इससे सुलसा घायल सर्पिणी के समान बन गई। उसे अपनी तन्त्र-शक्ति पर घमण्ड था। उसने चंपकमाला को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। रात्रि में उसने तन्त्र का प्रयोग किया। तन्त्र ने अपना कार्य किया। जिस समय रात्रि में राजा अरिकेसरी चंपकमाला के महल में आया, तन्त्र के प्रभाव से राजा को एक पुरुष चंपकमाला के कक्ष से निकलता हुआ दिखाई दिया। राजा के देखते ही देखते वह पुरुष आकाश में अदृश्य हो गया। यह देखकर राजा शंकित हो गया कि चंपकमाला के अवैध सम्बन्ध किसी विद्याधर से हैं। राजा का मन खेदखिन्न हो गया। राजा ने उसी दिन से चंपकमाला से देह-सम्बन्ध समाप्त कर दिए। पर वह चंपकमाला के पास प्रतिदिन आता रहा। वह चंपकमाला को इसलिए उपकारिणी मानता था क्योंकि उसने उसे जिनत्व का अमृतपान कराया था। उसी कारण वह प्रतिदिन कुछ समय के लिए चंपकमाला के पास आता था।
___ चंपकमाला पति के बदले हुए व्यवहार को पढ़ रही थी। वह जानती थी कि सुलसा ने ही तन्त्रबल से उसके पति को उससे विमुख किया है। पर वह सुलसा को तो निमित्त मात्र मानती थी। उसे ज्ञात था, व्यक्ति के सुख-दुख का मूल कारण उसके अपने कर्म ही होते हैं। सब कुछ जानकर भी चंपकमाला मौन भाव से समताशील बनी रही। ___ सुलसा को इतने-भर से सन्तुष्टि नहीं हुई। उसने नगर-भर में चंपकमाला के चरित्र के सम्बन्ध में अवर्णवाद फैला दिया। चंपकमाला के कानों तक भी यह सूचना पहुंच गई। उसे अपनी निन्दा से खिन्नता न थी, पर उसकी निन्दा से परोक्ष रूप से उसके पति का कुल भी निन्दित हो रहा था। अपने पति को निन्दा से मुक्त करने के लिए चंपकमाला ने अग्नि-परीक्षा देने का संकल्प कर लिया। उसने राजा को भी एतदर्थ सूचना दे दी। राजा ने चंपकमाला से कहा, मैंने स्वयं तुम्हारे कक्ष से विद्याधर को निकलते देखा है, फिर भी तुम अग्नि परीक्षा देने का दुःसाहस कर रही हो? चंपकमाला ने कहा, महाराज! अग्निस्नान स्वयं निर्णय करेगा कि आंखों का देखा हुआ भी मिथ्या हो सकता है। आपके कुल के सम्मान की रक्षा के लिए मेरे पास एकमात्र यही विकल्प शेष है कि मैं अग्नि-परीक्षा हूँ। आखिर राजा ने चंपकमाला के संकल्प से प्रबुद्ध और मान्य सभासदों को परिचित कराया। सबकी
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