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चंद्रबाहु स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) ___ तेरहवें विहरमान तीर्थंकर । पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय में स्थित पुण्डरीकिणी नगरी के स्वामी महाराज देवानन्द की महारानी रेणुका देवी की रत्नकुक्षी से प्रभु ने जन्म लिया। पद्मकमल प्रभु का चिह्न है। सुगंधा नामक राजकुमारी से प्रभु ने पाणिग्रहण कर तिरासी लाख पूर्व का आयुष्य गृहवास में व्यतीत किया। तब वर्षीदान देकर प्रभु प्रव्रजित हुए। केवलज्ञान को साध कर धर्मतीर्थ की संस्थापना की। असंख्य भव्य जीवों के लिए प्रभु ने निर्वाण प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। चौरासी लाख का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु निर्वाण को प्राप्त होंगे। (क) चंद्रयश
उज्जयिनी नगरी के एक धनाधीश श्रेष्ठी के पुत्र। विवाह के दिन ही हास्य-हास्य में उन्होंने चण्डरुद्राचार्य से दीक्षा ले ली। उस युवक में समता और गुरुभक्ति की ऐसी पराकाष्ठा थी कि दीक्षा वाले दिन ही न केवल स्वयं उन्होंने केवलज्ञान को साध लिया बल्कि अपने गुरु के केवली होने में भी वे निमित्त बने। (दखिए-चण्डरुद्राचाय)
-उत्तराध्ययन वृत्ति (ख) चंद्रयश
युवराज युगबाहु और मदनरेखा का आत्मज तथा सुदर्शन नगर का परम प्रतापी सम्राट् । युवराज युगबाहु की हत्या के पश्चात् जब मणिरथ भी एक सर्प द्वारा दंशित होने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गया तो सुदर्शन नगर के सभ्य सभासदों द्वारा अल्पायुष्क चंद्रयश का राजतिलक किया गया। वह अपने समय का शूरवीर
और कुशल शासक सिद्ध हुआ। किसी समय एक हाथी को लेकर उसके अनुज मिथिलाधिपति नमि से उसका विवाद हो गया और दोनों ओर की सेनाएं रणक्षेत्र में उतर आईं। उस समय उन दोनों की माता महासती मदनरेखा ने रणभूमि में पहुंचकर उन्हें उनका परिचय दिया। दोनों सहोदर गले मिले। चंद्रयश संसार की तस्वीर को अपनी माता द्वारा दिखाए जाने पर विरक्त हो गया। उसने अपना राजपाट अपने अनुज नमि को सौंप दिया और स्वयं तप करने के लिए मुनि बन गया। चंद्रयशा
दमयंती की मौसी। (देखिए-दमयन्ती) चंद्रवल्लभा ___ राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष रासकृता की पुत्री, जिसका पाणिग्रहण राजा राजमल द्वितीय के साथ हुआ था। उसके मन में जैन धर्म के प्रति सुदृढ़ अनुराग था। शुभचंद्र सिद्धान्तदेव उसके गुरु थे। उसने एक विशाल जिन प्रतिमा की स्थापना कराई थी। तत्कालीन राजवंश में वह उच्च पद पर आसीन थी।
शौर्य और सौन्दर्य की प्रतिमा चंद्रवल्लभा ने एक यशस्वी और धर्ममय जीवन जीया। अंतिम अवस्था में उसने संलेखना सहित देहोत्सर्ग कर अपने तपोमय जीवन की इति श्री की। ई.स. 918 में उसका स्वर्गवास -हुआ। चंद्रसेन __चंद्रपुर नगर के राजा रणधीर का पुत्र, एक धीर, वीर, गम्भीर और संकल्प का धनी युवक। उसके अग्रज का नाम जयसेन था। जयसेन का विवाह लीलावती नामक राजकन्या से हुआ। पिता के प्रव्रजित हो - जैन चरित्र कोश ..
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