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चंदनबाला
भगवान महावीर के साध्वी संघ की प्रमुख। सोलह महासतियों में से एक। एक राजकुमारी होते हुए भी चंदनबाला ने एक लम्बी कष्ट-शृंखला को जीया पर वह अपने धर्म से तिलमात्र भी विचलित नहीं हुई। उसके साध्वी-जीवन से पूर्व का वृत्त यों है____चंदनबाला चम्पानरेश महाराज दधिवाहन और रानी धारिणी की इकलौती पुत्री थी। वह अपने माता-पिता को अति प्रिय थी। एक बार चम्पानगरी पर कौशाम्बी नरेश शतानीक ने अकस्मात् आक्रमण कर दिया। व्यर्थ रक्तपात से बचने के लिए दधिवाहन वन में चला गया। शतानीक के आदेश पर उसकी सेना ने चम्पा में लूट-पाट की। एक रथिक के कुछ हाथ न लगा तो वह राजमहल में घुस गया। उसने महारानी धारिणी
और चंदनबाला को बलात् रथ में बैठाया और कौशाम्बी की ओर चल दिया। मार्ग में धारिणी के रूप पर उसकी दृष्टि मैली हो गई। उसने महारानी से विनोद किया। धारिणी ने अपने शील की रक्षा के लिए अपनी जबान खींचकर प्राण दे दिए। चंदनबाला ने मां का अनुसरण करना चाहा। पर रथिक के भाव बदल चुके थे। उसने चंदनबाला को अपनी पुत्री बना लिया। उसे अपने घर ले गया। पर रथिक की पत्नी ने वहां चंदनबाला को एक क्षण रुकने न दिया। उसने अपने पति को बाध्य कर दिया कि वह तत्काल बाजार में जाकर चंदना को बेच दे। रथिक ने चंदना को बाजार में बेच दिया। उसे वेश्याओं के एक दल ने भारी मूल्य चुका कर खरीद लिया। चंदना को जब यह बात ज्ञात हुई कि उसे वेश्याओं ने खरीद लिया है तो उसे बड़ा दुख हुआ। वह रोने लगी। उसके रुदन से आर्द्र बने सेठ धनावह ने वेश्याओं को बहुत-सा धन देकर चंदना को मुक्त करा लिया। वह उसे अपने घर ले आया। उसने चंदना को अपनी पुत्री मान लिया। वहां भी सेठ की पत्नी मूला चंदना की शत्रु बन बैठी। उसका मन इस संदेह से भर गया कि उसके पति कालान्तर में चंदना को अपनी सेठानी बनाएंगे। वह चंदना को सबक सिखाने के लिए अवसर की प्रतीक्षा करने लगी।
किसी समय धनावह सेठ को व्यापारिक कार्य हेतु तीन दिन के लिए ग्रामान्तर जाना पड़ा। मूला को अवसर मिल गया। उसके भीतर की राक्षसी वृत्तियां जाग उठीं। उसने निरपराध चंदनबाला को कठोर दैहिक और मानसिक यातनाएं दीं। उसे डण्डों से पीटा। उसकी केशराशि कतर दी। वस्त्र छीन कर उसे एक कछनी पहना दी। लौह-शृंखलाओं में उसके अंग-प्रत्यंग को जकड़ दिया। उसे तहखाने में पटक कर वह अपने पीहर चली गई।
__चंदनबाला रक्ताश्रुओं-भरा जीवन जी रही थी। उसकी कष्टकथा सुरसा का कण्ठ बन गई थी। उस क्षण उसने विचार किया-अब धर्म ही मेरी रक्षा कर सकता है। मैं धर्म की शरण ग्रहण करती हूं। उसने तहखाने में पड़े हुए ही तीन दिन के उपवास का प्रत्याख्यान ले लिया।
तीसरे दिन धनावह लौटे। घर में द्वार-द्वार पर ताले देख उनका मन शंकित हो गया। पूछने पर पड़ोस की एक वृद्धा ने पूरी घटना सेठ को सुना दी। दया सेठ का हृदय हाहाकार से भर गया। ताले तोड़कर उसने चंदना को बाहर निकाला। घर में खाने को कुछ न था। यहां-वहां देखा। घोडों के लिए उड़द के बांकले रखे थे। बर्तन न पाकर सेठ ने एक सूप के कोने में उन्हें डाला और चंदना को थमा दिया। चंदना को उनसे मन बहलाने की कहकर सेठ उसके लौह बन्धन कटवाने के लिए लोहार को लेने चले गए।
बन्धनों में बंधी चंदना सूप में उड़द बांकले लिए गृह-द्वार पर बैठी थी। उसका मन किसी अतिथि की बाट जोह रहा था। आंखें मार्ग पर बिछी थीं। ...जैन चरित्र कोश...
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