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गुणसुन्दर (आचार्य)
तीर्थंकर महावीर के जिनशासन के एक युगप्रधान आचार्य । आचार्य गुणसुन्दर एक प्रभावशाली और पुरोधा आचार्य थे। आचार्य गुणसुन्दर का जन्म वी.नि. 235 में हुआ था। उन्होंने वी.नि. 259 में दीक्षा ग्रहण की और वी.नि. 291 में वे युगप्रधान पद पर आरूढ़ हुए। लगभग सौ वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गारोहण हुआ। सम्राट् सम्प्रति आचार्य गुणसुन्दर के प्रति अनन्य आस्थाशील थे। आचार्य सुहस्ती और आचार्य गुणसुन्दर के शासन काल में सम्राट् सम्प्रति ने जिनशासन के प्रचार-प्रसार और प्रभावना में विशेष योगदान दिया था।
-कल्प सूत्र स्थविरावली
गुणसुन्दरी
भद्दिलपुर नरेश अरिमर्दन की इकलौती पुत्री, समस्त कलाओं में प्रवीण और शास्त्रों की ज्ञाता राजकुमारी। बाल्यावस्था से ही जिनधर्म पर उसकी अटूट आस्था थी, फलतः जिनेश्वर देव के सत्-सिद्धान्त उसके जीवन-सिद्धान्त बन गए थे। जब वह युवा हुई तो राजा उसके लिए किसी सुयोग्य वर की खोज में जुट गया।
राजा अरिमर्दन में एक योग्य राजा के समस्त गुण थे। पर एक दुर्गुण था, वह था उसका अहंकार । वह सोचता था कि वह जिसे चाहे सुखी बना सकता है और जिसे चाहे दुखी बना सकता है। उसके दरबारी भी चाटुकार थे और राजा के अहं को तृप्त करने वाले वचनों से उसे संतुष्ट करते रहते थे। एक बार राजा दरबार में बैठे थे। राजकुमारी गुणसुन्दरी भी राजा के पास ही बैठी थी। दरबारी राजा की प्रशंसा कर रहे थे
और उसे ही प्रजा के सुख का स्रष्टा कहकर उसकी अहंवृत्ति को सन्तुष्ट बना रहे थे। राजा अपने गुण-गौरव को सुनकर गद्गद बना जा रहा था। गुणसुन्दरी से पिता की मनःस्थिति छिपी नहीं थी। वह जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी। राजा के पूछने पर पुत्री ने विनीत और संयत शब्दों से स्पष्ट कर दिया कि दरबारी चाटुकार हैं और मिथ्या प्रशंसा से आप को भ्रमित बना रहे हैं। राजा ने पुत्री से पूछा कि दरबारियों का कथन मिथ्या क्योंकर
मारी ने कहा. पिता जी! इतना सच है कि आप एक सयोग्य शासक हैं परन्त यह सच नहीं है कि आप जिसे चाहें सुखी और दुखी बना सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के कारण ही सुख और दुख प्राप्त करता है।
राजा का अहंकार आसमान का स्पर्श करने लगा। उसने अकड़कर कहा कि धर्म-कर्म की बातें कपोलकल्पना हैं। मैं जिसे चाहूं राजा बना सकता हूं और जिसे चाहूं रंक बना सकता हूं। राजकुमारी ने पुनः पितृवचनों का विरोध किया। इससे राजा का अहंकार इस कदर घायल हुआ कि उसने एक विचित्र निर्णय कर लिया। उसने जंगल से एक लकड़हारे को पकड़कर उसके साथ गुणसुन्दरी का विवाह कर दिया और उससे समस्त राजसी वस्त्राभूषण उतरवा कर साधारण-सी साड़ी में उसे विदा दी। विदा देते हुए उसने कहा, पुत्री! यह है मेरी शक्ति का चमत्कार ! तुमने मेरी शक्ति को ललकारा तो मैंने क्षण में ही तुम्हें राजकुमारी से लकड़हारिन बना दिया ! गुणसुन्दरी ने मुस्करा कर कहा, पिता जी! आप तो निमित्त मात्र हैं, अपने कर्म के कारण ही मैं राजकुमारी थी, अपने कर्म के कारण ही मैं लकड़हारिन हूं और अपने कर्म से ही सुख या दुख भविष्य में प्राप्त करूंगी। ___गुणसुन्दरी का साथ मिलते ही लकड़हारे के पुण्यों का उदय हो आया। जंगल में उसे बावनाचन्दन का वृक्ष मिल गया। गुणसुन्दरी के मार्ग निर्देशन में बावनाचन्दन की लकड़ियों का व्यापार कर लकड़हारा कोटीश्वर श्रेष्ठी बन गया। गुणसुन्दरी ने अपने पति पुण्यपाल (लकड़हारे का नाम) को पढ़ना-लिखना सिखाया। पुण्यपाल .... जैन चरित्र कोश ...
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