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वी.नि. की सतरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध आचार्य उदयप्रभ का समय माना जाता है।
आचार्य उदयप्रभ का शासनकाल गुजरात में जैन धर्म का उत्कर्ष काल माना जाता है। अमात्य बन्धुओं-वस्तुपाल और तेजपाल ने जैन धर्म के प्रचार और प्रसार में अपना पूरा योगदान अर्पित किया था। उदायन राजर्षि
सिन्धु सौवीर देश की राजधानी वीतभय नगर के शासक। उनकी रानी का नाम प्रभावती था, जो महाराज चेटक की पुत्री थी एवं अनन्य श्रमणोपासिका थी। राजा स्वयं तापस धर्म का अनुयायी था। प्रभावती ने दीक्षा धारण की और शुद्ध संयम पालकर देवलोक में देवी बनी। देवलोक से आकर उसने अपने पति को प्रतिबोध दिया। उदायन श्रमणोपासक बन गए। किसी समय पौषध की आराधना करते हुए उदायन ने विचार किया-वे नगर और जनपद धन्य हैं, जहां भगवान महावीर विचरण करते हैं। भगवान यदि मेरे नगर में पधारें तो मैं भी मुनिदीक्षा धारण करके आत्म-कल्याण करूं !
भक्त की पुकार में बंधे भगवान महावीर वीतभयनगर पधारे। उदायन ने अपना राज्य ‘राज्येश्वरी नरकेश्वरी' के चिन्तन से प्रभावित होकर अपने पुत्र अभीचिकुमार को न देकर भानजे केशी को दे दिया और स्वयं दीक्षित हो गए। राजर्षि उदायन उग्र तप करते हुए विचरने लगे। उग्र तप से उदायन बहुत कृश हो गए। एकदा विचरते हुए वीतभय पधारे । केशी के मंत्रियों ने उसके कान भर दिए कि उदायन अपना राज्य पुनः लेने आए हैं। केशी ने नगर में घोषणा करा दी कि कोई भी उदायन राजर्षि को ठहरने का स्थान न दे तथा भिक्षा भी न दे। राजाज्ञा उल्लंघन करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाएगा। फलतः अपने ही नगर में उदायन राजर्षि को भिक्षा और आवास नहीं मिला। आखिर एक कुम्भकार ने साहस कर मुनि को ठहरने का स्थान दे दिया। केशी ने पैंतरा बदलते हुए छल का आलंबन लिया। कृत्रिम विनय प्रदर्शित करते हुए उसने मुनि को भोजन में विष दे दिया। समभावी मुनि अपनी साधना में निश्चल रहे। एक क्षण के लिए भी उनके मन में केशी के लिए द्वेष अथवा क्रोध का भाव नहीं जगा। अन्तिम श्वास के साथ केवलज्ञान प्राप्त कर उदायन राजर्षि मोक्ष पधारे। उदायी (राजा)
मगधाधिपति महाराज श्रेणिक का पौत्र और कोणिक का पुत्र । श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् जिस प्रकार कोणिक ने राजगृह को छोड़कर चम्पानगरी को अपनी राजधानी बनाया था, उसी प्रकार उदायी ने कोणिक की मृत्यु के पश्चात् पाटलिपुत्र नामक नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया।
वी.नि.सं. 18-19 में उदायी मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ। अपने युग का वह एक महाप्रतापी नरेश था। उसने अपनी राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया था। उसके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह अपने पितामह और पिता की तरह दृढ़धर्मी श्रावक था। प्रत्येक पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी के दिन वह नियमित रूप से पौषध किया करता था।
__ कतिपय ग्रन्थों के अनुसार एक छद्म साधु वेशधारी राजपुत्र ने पौषधावस्था में महाराज उदायी की हत्या की थी। उदायी निःसंतान अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु के पश्चात् मगध पर नंदों के शासन का प्रारंभ हुआ था।
-आवश्यक चूर्णी आवश्यक वृत्ति / परिशिष्ट पर्व उद्योतनसूरि (आचार्य)
एक जैन आचार्य जो बड़गच्छ अथवा बृहद्गच्छ के संस्थापक माने जाते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में विमल ... जैन चरित्र कोश..
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