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(क) उज्झित कुमार
नन्दिपुर नरेश रत्नसार का पुत्र । उसका उक्त नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उसके जन्म लेते ही उसकी
रंभा ने उसको कुरड़ी पर फैंकवा दिया था। उसकी वैसा करने के पीछे कोई दुर्भावना नहीं थी, बल्कि एक मान्यता थी कि वैसा करने से उसका पुत्र दीर्घजीवी होगा। संयोग से उसकी मान्यता सुफला सिद्ध हुई और कुमार दीर्घजीवी हुआ। उससे पूर्व रंभा के कई पुत्र अल्पावस्था में ही चल बसे थे । उज्झितकुमार को माता-पिता, परिजनों और पुरजनों से इतना प्रेम और दुलार मिला कि वह अविनीत बन गया । वह बड़ा होता गया और उसका अहंकार भी बढ़ता गया । गुरुकुल में वह आचार्य को अपमानित करने से नहीं चूकता था । आचार्य ने उसे गुरुकुल से निकाल दिया । वस्तुस्थिति से परिचित होने पर महाराज रत्नसार ने पुत्र को समझाया । र उज्झतकुमार ने पिता को भी अपमानित कर दिया । उसकी अहंवृत्ति को तोड़ने के लिए महाराज रत्नसार ने उसको देश निकाला दे दिया । वन प्रांतर में भटकते हुए उज्झितकुमार तापसों के एक आश्रम में पहुंचा। पर अपनी अविनीतता के कारण वहां भी उसे शरण नहीं मिली । वन-पथ पर एक सिंह ने उसका भक्षण कर लिया। मरकर वह गर्दभ बना । तिर्यंचायु पूर्ण कर नंदिपुर के पुरोहित का पुत्र बना और वेद-वेदांगों का पण्डित बन गया। पर उसकी अहंवृत्ति यथावत् थी। वहां से मरकर वह चाण्डाल - पुत्र बना। उस चाण्डाल- पुत्र पर पुरोहित और उसके परिजनों का विशेष अनुराग भाव था। पर उस अनुराग का कोई कारण पुरोहित जान नहीं पाता था। एक बार एक केवली मुनि नन्दीपुर पधारे। पुरोहित ने मुनि से चाण्डालपुत्र के प्रति उसके अनुराग का कारण पूछा। चाण्डालपुत्र भी मुनि - परिषद में उपस्थित था। मुनि ने चाण्डाल - पुत्र के पूर्वभव सुनाए। चाण्डाल-पुत्र अपने पूर्वभव सुनकर प्रतिबुद्ध हो गया । अहं त्याग कर उसने विनय वृत्ति धारण कर । आगे के भवों में वह मोक्ष प्राप्त करेगा । पुरोहित भी प्रतिबोध प्राप्त कर दीक्षित हो गया ।
- उपदेश सप्ततिका
(ख) उज्झित कुमार
अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व वाणिज्य ग्राम नगर निवासी विजयमित्र सेठ और सुभद्रा का अंगजात, जिसे जन्म ही माता ने उकुरुड़ी पर फिंकवा दिया था, पर मोहवश पुनः अपने पास मंगवा लिया। इसी कारण उसका नाम उज्झितकुमार पड़ा। वह बड़ा हुआ तो एक-एक कर सातों कुव्यसनों का शिकार बन गया। उसी नगर में रहने वाली कामध्वजा वेश्या, जो राजवेश्या थी और जिसे राज्य की ओर से प्रतिदिन एक हजार स्वर्णमुद्राएं मिलती थीं, के प्रति उज्झितकुमार विशेष रूप से आकर्षित था । वेश्या का भी उसके प्रति पूर्ण अनुराग भाव
था ।
किसी समय राजा की रानी गुप्त रोग की शिकार बन गई। राजा ने कामध्वजा को अपने अन्तःपुर में रख लिया । उज्झितकुमार के लिए यह बड़ा कष्टप्रद था । वह कामध्वजा को देखे बिना रह नहीं सकता था । एक दिन पहरेदारों की आंख बचाकर वह अन्तःपुर में कामध्वजा के पास पहुंच गया। उसी समय राजा वहां आ गया । उज्झितकुमार को नाक-कान काटकर शूली पर चढ़ाने का कठोर दण्ड राजा ने दिया ।
वधिकों ने उज्झितकुमार के नाक-कान काटकर उसे नगर में भ्रमण कराया। वे उसके शरीर से मांस के टुकड़े काटकर पक्षियों को खिला रहे थे और ऊपर से बुरी तरह मार रहे थे। उधर से गौतम स्वामी भिक्षा कर गुजरे। युवक की यह दशा देखकर उनका मन खिन्नता से भर गया । उन्होंने भगवान के पास पहुंचकर पूरी स्थिति बताते हुए पूछा - भगवन् ! किन दुःसह कर्मों के कारण उसे ऐसी यातनाएं झेलनी पड़ रही हैं ? • जैन चरित्र कोश •••
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