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उंबरदत्त ___पाटलिखण्ड नामक नगर में सागरदत्त नाम का एक सार्थवाह रहता था। उसकी पत्नी का नाम गंगादत्ता था। गंगादत्ता ने कई संतानों को जन्म दिया, पर दुर्दैववश उसकी सभी सन्तानें मृत पैदा हुईं। आयु में वृद्धि के साथ ही साथ गंगादत्ता के हृदय में दीर्घायुषि सन्तान प्राप्ति की कामना भी वृद्धि पाती गई। नगर के बाह्य भाग में उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था। नगरजनों में यक्ष की महती मान्यता थी। गंगादत्ता न भा उम्बरदत्त यक्ष की आराधना कर दीर्घायुषि पुत्र की मनौती मांगी। भाग्यवश कालान्तर में उसे एक दीर्घायुषि पुत्र हुआ। माता-पिता ने पुत्र को उम्बरदत्त यक्ष की मनौती का परिणाम मानकर उसका नाम उम्बरदत्त रखा।
कालक्रम से उम्बरदत्त युवा हुआ। सागरदत्त का व्यापार दूर देशों में फैला हुआ था। व्यापार के लिए वह अक्सर समुद्री यात्राएं करता रहता था। एक बार उसने नागरिकों से भारी कर्ज उठाकर व्यापार को और अधिक फैलाने का संकल्प किया। विशाल जहाज में माल भरकर वह देशान्तर के लिए निकला। परन्तु दुर्दैववश समुद्र के मध्य में ही जहाज खण्डित हो गया। सागरदत्त जहाज सहित सागर में डूब गया।
सागरदत्त की मृत्यु और उसके जहाज के डूब जाने की सूचना पाटलिखण्ड पहुंची तो गंगादत्ता को भारी आघात लगा। हृदय गति रुक जाने से उसका भी निधन हो गया। लेनदार नागरिकों ने उम्बरदत्त को उसके घर से निकाल दिया और उसकी चल-अचल पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया।
उम्बरदत्त लाड़-प्यार में पला था। उदरपोषण का कोई आधार या विधि न पाकर वह भीख मांगने लगा। कालान्तर में उसके शरीर में अनेकानेक व्याधियां उत्पन्न हो गईं। श्वास, काश, कोढ़ादि सोलह महारोगों से आक्रान्त उम्बरदत्त का जीवन नरकतुल्य बन गया। रुधिर और पीप का वह निरन्तर वमन करता था। उसके शरीर पर असंख्य फोड़े उभर आए, जिनसे निरन्तर मवाद बहता रहता। उस पर मक्खियां भिनभिनाती रहतीं। सभी लोग उससे घृणा करते। ऐसी दुखद और दारुण दशा में द्वार-द्वार पर भीख मांगते हुए वह समय बिताने लगा।
__एक बार भगवान महावीर पाटलिखण्ड नगर के बाह्य भाग में स्थित वनखण्ड नामक उद्यान में पधारे। षष्ठ तप के पारणे के लिए गौतम स्वामी भिक्षार्थ नगर में गए। उन्होंने पूर्व दिशा द्वार से नगर में प्रवेश किया। जब भिक्षा प्राप्त कर गौतम स्वामी अपने स्थान पर लौट रहे थे तो उनकी दृष्टि उम्बरदत्त पर पड़ी। उसकी दयनीय दशा देख कर गौतम स्वामी का हृदय करुणा से भर गया। कर्मों की विचित्र लीला पर चिन्तन करते हुए वे भगवान के पास लौट आए। भगवान को भिक्षा दिखाकर और निरासक्त भाव से उसका उपभोग कर स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न हो गए।
द्वितीय षष्ठ तप के पारणे के अवसर पर गौतम स्वामी ने नगर के दक्षिण-द्वार से प्रवेश किया। उस बार भी उन्होंने उक्त रोगाक्रान्त पुरुष को देखा। तृतीय और चतुर्थ पारणे के अवसर पर गौतम स्वामी ने क्रमशः पश्चिम और उत्तर दिशा-द्वार से नगर में प्रवेश किया। प्रत्येक बार संयोग से उन्होंने उस रुग्ण पुरुष ... 66 ...
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