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ईश्वरप्रभ स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
पन्द्रहवें विहरमान तीर्थंकर । पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की वत्स विजय में स्थित सुसीमापुरी नगरी में प्रभु का जन्म हुआ । प्रभु के पिता का नाम महाराज राजसेन और माता का नाम महारानी यशोज्ज्वला था । चन्द्र चिह्न से संयुक्त प्रभु ने यौवन काल में चन्द्रावती नामक राजकन्या से पाणिग्रहण किया । पिता के राजपद त्याग के पश्चात् प्रभु ने राज्य संचालन का दायित्व वहन किया और तिरासी लाख पूर्व की अवस्था तक प्रभु राजा रहे। उसके बाद एक वर्ष तक मुक्त हस्त से दान देकर प्रभु दीक्षित हुए। केवलज्ञान प्राप्त कर प्रभु ने धर्मतीर्थ की स्थापना की और असंख्य भव्य प्राणियों के लिए कल्याण का परम-पथ प्रशस्त किया। चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य होने पर प्रभु निर्वाण को उपलब्ध होंगे।
ईश्वरी
श्री सोपारक नगर के श्रेष्ठी जिनदत्त श्रावक की पत्नी थी। उसके चार पुत्र थे - नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर ।
उस समय देश में भीषण दुष्काल पड़ा था । अन्न के कण-कण के लिए लोग तरस रहे थे । श्रमण मुनिराज भी दूर-दूर नगरों में विचरण कर साधना में संलग्न थे । आर्य वज्रसेन मुनि से गुरु ने कहा था-जिस दिन तुम्हें भिक्षा में चारों प्रकार का उत्तम आहार उपलब्ध होगा, वह दुर्भिक्ष का अंतिम दिन होगा ।
ईश्वरी श्राविका का परिवार भी दुर्भिक्ष का दुर्दैव झेल रहा था। घर में जो सामग्री शेष थी, उससे एक ही समय का भोजन तैयार हो सकता था। भविष्य की भूख की कल्पना से ईश्वरी के प्राण कांप गए। नर कंकालों को वह देखकर कांप जाती थी । उसके पुत्रों और पति की भी वैसी ही दशा होगी, इस कल्पना ने उसे विचलित कर दिया। उसने एक भयावह निर्णय कर लिया। शेष सामग्री से उसने उत्तम भोजन तैयार किया। भोजन तैयार करने के पश्चात् जैसे ही वह उसमें विष का संचरण करने जा रही थी- वैसे ही आर्य वज्रसेन मुनि उसके घर पधारे। मुनि को अपने द्वार पर देखकर ईश्वरी का हृदय धड़क उठा। उसने रो कर अपनी योजना मुनि से कही, महाराज! मैं भोजन में विष मिलाकर लम्बे दुखमय जीवन से स्वयं को और अपने परिवार को मुक्ति देने जा रही हूं।
नको उत्तम भोजन का योग देखकर गुरु का कथन स्मरण हो आया। उन्होंने कहा, बहन ! दुष्काल का आज अंतिम दिन है। कल से सुभिक्ष का सुप्रभात उदय होगा। ईश्वरी ने भाव भरे हृदय से मुनि को आहार दान दिया ।
दूसरे ही दिन अन्न से भरे पोत सोपारक नगर पहुंच गए और दुर्भिक्ष के दुर्दिन विदा हो गए।
इस घटना से ईश्वरी को आत्मबोध मिला। उसने संसार त्याग कर भी अपने चारों पुत्रों के साथ आर्य वज्रस्वामी चरणों में दीक्षा धारण नाम पर ही नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर गच्छों की उत्पत्ति हुई ।
प्रव्रज्या धारण कर ली। जिनदत्त ने | आर्य वज्र के उन चारों शिष्यों के
••• जैन चरित्र कोश
- उपाध्याय विनयविजय जी कल्पसूत्र *** 65