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आपका जन्म राजस्थान प्रान्त के तिवरी ग्राम में सं. 1812 मार्ग शीर्ष कृष्णा द्वितीया के दिन हुआ। आपके पिता का नाम श्रीमान रूपचन्द जी और माता का नाम श्रीमती गीगादेवी था। वि.सं. 1830 में आपने आचार्य श्री जयमल्ल जी महाराज के श्रीचरणों में दीक्षा धारण की। सन् 1868 में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। 1882 में आपका स्वर्गवास हुआ।
आपका जीवन असंख्य सद्गुण रूपी सुमनों का उपवन था। आपका कवित्व गुण सर्वाधिक ध्वनित हुआ जिसकी ध्वनि आज भी सहस्रों हृदयों में भक्ति की रस गंगा बनकर प्रवहमान है। आपने खण्ड काव्य
और मुक्तक काव्य में पर्याप्त लेखन किया। भाषा की दृष्टि से आपकी रचनाएं राजस्थानी भाषा में हैं। माधुर्य और भक्ति रस आपकी कविताओं की आत्मा रही है। ओशो विगत शती के एक क्रांतदर्शी दार्शनिक।
ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा नामक ग्राम में एक जैन परिवार में हुआ। वे बाल्यकाल से ही प्रतिभासंपन्न और साहसी थे। प्रारंभिक शिक्षा गांव में पूर्ण करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए जबलपुर महाविद्यालय में प्रवेश किया। 1957 में उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
शिक्षा पूर्ण कर ओशो जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। वहां उनका अध्यापन काल नौ वर्ष का रहा। उसके बाद उन्होंने प्राध्यापक पद से त्याग-पत्र दे दिया और भारतवर्ष के विभिन्न अंचलों में भ्रमण कर वे व्याख्यान देने लगे। पुरातन परम्पराओं के वे विरोधी रहे। उनकी तर्कणा शक्ति अद्भुत थी। भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों का उनका अध्ययन भी विस्तृत था। उन्होंने महावीर, बुद्ध, कृष्ण, कबीर, गुरुनानक, मीरा, रैदास आदि महापुरुषों के वचनों के आधार पर सामयिक प्रवचन दिए। तर्क की कसौटी पर महापुरुषों के वचन को कसकर उन्हें सामयिक स्वरूप प्रदान किया। ओशो के जीवन-दर्शन का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक महापुरुष के प्रति उनके हृदय में अपार सम्मान था।
ओशो का जन्मना नाम रजनीश चंद्रमोहन था। एक समयावधि में वे 'भगवान रजनीश' भी कहलाए। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपने लिए 'ओशो' नाम को स्वीकार किया।
विश्व के अनेक देशों में ओशो ने भ्रमण किया। उनका प्रभा-क्षेत्र सुविशाल बनता रहा। पूर्व और पश्चिम के हजारों लोग उनके अनुयायी हैं। उनके प्रवचनों की सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
19 जनवरी 1990 में पना में उनका स्वर्गवास हुआ।
तीर्थंकर महावीर के प्रति उनका अपार प्रेम भाव रहा। महावीर के वचनों पर उनकी कई प्रवचन-पुस्तकें हैं। उन्होंने घोषणा की थी-आणविक युग में यदि विश्व को महाविनाश से बचना है तो उसे महावीर की अहिंसा को चुनना होगा।
महावीर के प्रति उनका अपार सम्मान उनके जैन संस्कारों का प्रमाण है।
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