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________________ EFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP दियारूपी दक्षिणा द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान] $$$$$$$$$$$$~~~~~~~弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 {156) तपोमयः प्रणीतोऽग्निः कर्माण्याहुतयोऽभवन्। विधिगास्ते सुयज्वानो मन्त्रः स्वायंभुवं वचः॥ महाध्वरपतिर्देवो वृषभो दक्षिणा दया। फलं कामितसंसिद्धिरपवर्ग: क्रियावधिः॥ इतीमामार्षभीमिष्टिमभिसंधाय तेऽअसा। प्रावीवृतानूचानास्तपोयज्ञमनुत्तरम् ॥ (आ.पु. 34/215-217) जिसमें तपश्चरण ही संस्कार की हुई अग्नि थी, कर्म ही आहुति अर्थात् होम करने योग्य द्रव्य थे, विधिविधान को जानने वाले वे मुनि ही होम करने वाले थे। श्री जिनेन्द्र देव ॥ ॐ के वचन ही मंत्र थे, भगवान् वृषभदेव ही यज्ञ के स्वामी थे, दया ही दक्षिणा थी, इच्छित वस्तु की प्राप्ति होना ही फल था और मोक्ष प्राप्त होना ही कार्य की अंतिम अवधि थी। इस प्रकार म भगवान् ऋषभदेव के द्वारा कहे हुए यज्ञ का संकल्प कर तपस्वियों ने तपरूपी श्रेष्ठ यज्ञ की ॐ प्रवृत्ति चलाई थी। 绍$听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 to हिंसाः अतिथि हेतु भी अधर्म (157) दाणट्ठयाय जे पाणा हम्मति तसथावरा। तेसिं सारक्खणट्ठाए अत्थि पुण्णं ति णो वए॥ (सू.कृ. 1/11/18) दान के लिए जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं, उनके संरक्षण के लिए 'पुण्य है'- ऐसा (मुनि) न कहे। P LOADDDDDDDDDDDDDDDDLI-FUUGUGG.P.I.PIGIPI अहिंसा-विश्वकोश/691
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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