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________________ FFFFFFFFFFFES अहिंसक यज्ञ की श्रेष्ठता और उसका आध्यात्मिक स्वरूप [प्रश्रव्याकरण सूत्र में 'यज्ञ' को अहिंसा का वाचक माना गया है। देखें- इस कोष की सूक्ति संख्या 195; इस अहिंसात्मक यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट करने हेतु विशिष्ट आगमिक वचन यहां प्रस्तुत हैं:-] ___{154) के ते जोई के व ते जोइठाणे का ते सुया किं व ते कारिसंगं। एहा य ते कयरा सन्ति भिक्खू! कयरेण होमेण हुणासि जोइं॥ तवो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंगं। कम्म एहा संजमजोग सन्ती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ॥ (उत्त. 12/43-44) 卐 ('रुद्रदेव' याज्ञिक ब्राह्मण द्वारा हरिकेश मुनि से अध्यात्म-यज्ञ के सम्बन्ध में जिज्ञासा-卐 ) "हे भिक्षु! तुम्हारी ज्योति (अग्नि) कौन सी है? ज्योति का स्थान कौन सा है? घृतादि डालने वाली कड़छी कौन है? अग्नि को प्रदीप्त करने वाले करीषांग (कण्डे) कौन से हैं? 卐 तुम्हारा ईधन और शांतिपाठ कौन-सा है? और किस होम से-हवन की प्रक्रिया से आप ॐ ज्योति को प्रज्वलित करते हैं?" (हरिकेश मुनि का उत्तर:-) "तप ज्योति है। जीव-आत्मा ज्योति का स्थान है। + मन, वचन और काया का योग कड़छी है। शरीर कण्डे हैं । कर्म ईन्धन है। संयम की प्रवृत्ति ॐ शांति-पाठ है। ऐसा मैं प्रशस्त यज्ञ करता हूं।" タ~明明%%%%%%%%%%%弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱! 听听听听听听听听听听听听听听听听听听! (155) सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं इह जीवियं अणवकंखमाणो। वोसट्ठकाओ सुइचत्तदेहो महाजयं जयई जनसिलैं॥ (उत्त. 12/42) ___ "जो पांच संवरों से पूर्णतया संवृत होते हैं, जो जीवन की आकांक्षा नहीं करते हैं, जो शरीर का अर्थात् शरीर की आसक्ति का परित्याग करते हैं, जो पवित्र हैं, जो विदेह हैंदेह-भाव में नहीं हैं, वे वासना-विजेता महाजयी ही श्रेष्ठ आध्यात्मिक यज्ञ करते हैं।" R E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET [जैन संस्कृति खण्ड/68
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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