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EFFEENEFFEIFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFAIRS PO हिंसाः धर्म के नाम पर पूर्णतः अनुचित
[136) धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम्। इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्याः॥
___(पुरु. 4/44/80) "निश्चय ही धर्म देवों से उत्पन्न होता है, अतः इस लोक में उनके लिये सब कुछ 卐 दे देना चाहिए"- ऐसे अविवेक से ग्रसित बुद्धि प्राप्त करके देहधारी जीवों को कोई यदि मारे ॥ 卐 तो यह उचित नहीं है। (देव/देवी के समक्ष पशुबलि देने को जो अज्ञानी लोग धर्म-कार्य में बताते हैं, उनका खण्डन यहां किया गया है।)
{137) सौख्यार्थे दुःखसन्तानं मङ्गलार्थेऽप्यमङ्गलम्। जीवितार्थे ध्रुवं मृत्युं कृता हिंसा प्रयच्छति ॥
(ज्ञा. 8/21/493) सुख के लिए की गई हिंसा दुःख की परम्परा बनाती है, मंगलार्थ की गई हिंसा अमंगल ही करती है तथा जीवनार्थ की गई हिंसा मृत्यु को प्राप्त कराती है। इस बात को निश्चित जानना।
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(138)
सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिंसने न दोषोऽस्ति। इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः॥
___ (पुरु. 4/43/79) 'भगवान् का कहा हुआ धर्म सूक्ष्म है, अतः धर्म के निमित्त से हिंसा करने में दोष में नहीं है- ' ऐसी धर्म-सम्बन्धी मूढता को हृदय में रख कर शरीरधारी जीवों को मारना कभी
भी उचित नहीं है। (कुछ लोग यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों में पशु-वध करने का समर्थन करते ॐ हैं। ऐसे लोग पूर्णतः मुग्ध/मूढ हैं, अज्ञानी हैं, उन्हीं लोगों को दृष्टि में रख कर उक्त कथन ॥ 卐 किया गया है।)
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अहिंसा-विश्वकोश/63]