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________________ ETTEFFESTERSTIFHOTSESSETTESTEETHESE PE ततोऽन्येद्यः खगो नाम्ना देवो दिनकरादिमः। पर्वतस्याखिलप्राणिविरुद्धाचरितं त्वया ॥ (446) निरुध्यतामिति प्रीत्या निर्दिष्टो नारदेन सः। करिष्यामि तथेतीत्वा नागान् गंधारपन्नगान्॥ (447) स विद्यया समाहृतांस्तत्त्रपचं. यथास्थितम्। अवोचत्तेऽपि संग्रामे भङ् क्वा दैत्यमकुर्वत॥ (448) यज्ञविघ्नं समालोक्य विश्वभूपर्वताह यौ। शरणान्वेषणोद्युक्तौ महाकालं यदृच्छया॥ (449) पुरः संनिहितं दृष्ट्वा यागविघ्नं तमूचतुः। नागैषिभिरस्माकं विहितोऽयमुपद्रवः ॥ (450) नागविद्याश्च विद्यानुप्रवादे परिभाषिताः। निषिद्धं जिनबिम्बानामुपर्यासां विजृम्भणम्॥ (451) तदनन्तर किसी दिन, दिनकर देव नाम का विद्याधर आया। नारद ने उससे बड़े प्रेम से कहा कि इस समय पर्वत समस्त प्राणियों के विरुद्ध आचरण कर रहा है, इसे आपको रोकना चाहिए। उत्तर में विद्याधर ने कहा कि अवश्य परोदूंगा। ऐसा कह कर उने अपनी विद्या से गंधारपत्रग नामक नागकुमार देवों को बुलाया और विघ्न करने का सब प्रपंच उन्हें यथायोग्य बतला दिया। नागकुमार देवों ने भी संग्राम में दैत्यों को मार भगाया और यज्ञ में विघ्न मचा दिया। विश्वभू मंत्री और पर्वत यज्ञ में होने वाला विघ्न देख कर शरण की खोज करने लगे। अनायास ही उन्हें सामने खड़ा हुआ महाकाल असुर दिखाई पड़ा। दिखते ही उन्होंने उससे यज्ञ में विघ्न आने का सब समाचार कह सुनाया, उसे सुनते ही महाकाल ने कहा कि हम लोगों के साथ द्वेष रखने वाले नागकुमार देवों ने यह उपद्रव किया है। नागविद्याओं का निरूपण विद्यानुवाद में हुआ है। जिनबिम्बों के ऊपर इनके विस्तार का निषेध बतलाया है, अर्थात् जहां जिनबिम्ब होते हैं, वहां इनकी शक्ति क्षीण हो जाती है। ततो युवां जिनाकारान् सुरूपान् दिक्चतुष्टये। निवेश्याभ्यर्च्य यज्ञस्य प्रक्रमेथामिमं विधिम्॥ (452) इत्युपायमसावाह तौ च तच्चक्रतुस्तथा। पुनः खगाधिपोऽभ्येत्य यज्ञविघ्नविधित्सया॥ (453) दृष्ट्वा जैनेन्द्रबिम्बानि विद्याः क्रामन्ति नात्र मे। नारदाय निवेघेति स्वस्वधाम समाश्रयन्॥ (454) इसलिए तुम दोनों चारों दिशाओं में जिनेन्द्र के आकार की सुंदर प्रतिमाएं रख कर उनकी पूजा करो और तदनन्तर यज्ञ की विधि प्रारम्भ करो। इस प्रकार महाकाल ने यह उपाय बताया और उन दोनों ने उसे यथाविधि किया। तदनन्तर विद्याधरों का राजा दिनकर देव यज्ञ में विघ्न करने की इच्छा से आया और जिन-प्रतिमाएं देख कर नारद से ॐ कहने लगा कि यहां मेरी विद्याएं नहीं चल सकतीं। ऐसा कह कर वह अपने स्थान पर चला गया। 開听听听 UCUCUTUCULUCULELEDELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELE Michimahina ज गजगतजननगगनचचचचचन JP [जैन संस्कृति खण्ड/12
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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