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________________ EFFE RREEEEEEEEEEEEEEM निर्विघ्नं यज्ञनिवृत्तौ विश्वभूः पर्वतश्च तौ। जीवितान्ते चिरं दु:खं नरके ऽनुबभूवतुः॥ (455) महाकालोऽप्यभिप्रेतं साधयित्वा स्वरूपधृत्। प्राग्भवे पोदनाधीशो नपोऽहं मधुपिङ्गलः॥ (456) मयैवं सुलसाहेतोमहत्पापमनुष्ठितम्। अहिंसालक्षणो धर्मों जिनेन्द्ररभिभाषितः॥ (457) अनुष्ठेयः स धर्मि?रित्युक्त्वाऽसौ तिरोदधत् । स्वयं चादात्स्वदुश्चेष्टाप्रायश्चित्तं दयाधीः॥ (458) इस तरह व यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ और विश्वभू मंत्री तथा पर्वत दोनों ही आयु के अंत में मर कर चिरकाल के लिए नरक में दुःख भोगने लगे। अंत में महाकाल असुर अपना अभिप्राय पूरा कर अपने असली रूप में प्रकट हुआ और कहने लगा कि मैं पूर्व भव में पोदनपुर का राजा मधुपिंगल था। मैंने ही इस तरह सुलसा के निमित्त यह बड़ा भारी पाप किया है। जिनेन्द्र भगवान् ने जिस अहिंसालक्षण धर्म का निरूपण किया है, धर्मात्माओं को उसी ज का पालन करना चाहिए। इतना कह कर वह अन्तर्हित हो गया और दया से आर्द्र बुद्धि होकर उसने अपनी दुष्ट चेष्टाओं का प्रायश्चित्त स्वयं ग्रहण किया। 明明明明明明明明明明明明 %%%%%%%%%%弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 निवृत्तिमेव संमोहाद्विहितात्पापकर्मणः। विश्वभूप्रमुखाः सर्वे हिंसाधर्मप्रवर्तकाः॥ (459) प्रययुस्ते गतिं पापानारकीमिति केचन। दिव्यबोधैः समाकर्ण्य मुनिभिः समुदाहृताम्॥ (460) पर्वतोद्दिष्टदुाग नोपेयुः पापभीरवः। केचित्तु दीर्घसंसारास्तस्मिन्नेव व्यवस्थिताः॥ (461) 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明小 मोहवश किए हुए पाप-कर्म से निवृत्ति होना ही प्रायश्चित्त कहलाता है। हिंसा धर्म में प्रवृत्त रहने वाले विश्वभू आदि समस्त लोग पाप के कारण नरक गति में गए और पाप से डरने वाले कितने ही लोगों ने सम्याज्ञान के धारक मुनियों के द्वारा कहा धर्म सुन कर पर्वत के द्वारा कहे मिथ्यामार्ग को स्वीकृत नहीं किया और जिनका संसार दीर्घ था ऐसे कितने ही लोग उसी मिथ्या मार्ग में स्थित हो गए। इत्यनेन स मंत्री च राजा चागममाह तम्। समासीनाश्च सर्वेऽपि मंत्रिणं तुष्ट वुस्तराम्॥ (462) तदा सेनापति म्ना महीशस्य महाबलः। पुण्यं भवतु पापं वा यागे नस्तेन किं फलम्॥ (463) प्रभावदर्शनं श्रेयो भूभन्मध्ये कुमारयोः। इत्युक्तवांस्ततो राजा पुनश्चैतत् विचारवत्॥ (464) इति मत्वा विसृज्यैतान् मन्त्रिसेनापतीन् पुनः। हितोपदेशिनं प्रश्नं तमपृच्छत्पुरोहितम्॥ (465) HELLEGEUELLELEGREERENEURSERIES अहिंसा-विश्वकोश।513)
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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